कल उत्तर प्रदेश मे चुनावी घमासान की शुरुआत है... फेसबुक पर अनगढ़ चिन्तन करते करते कुछ अनगढ़ विचार पंक्तियों मे उतर आए.... पोस्ट के कमेन्ट के रूप मे भाई सलिल वर्मा जी ने कविता को आगे बढ़ाया और एक रचना ने रूप पाया... जिसे ब्लॉग पर डालने का लोभ संवरण नहीं कर सका...यह कविता मेरी और सलिल वर्मा जी के विचारों का फ्यूजन है...
बस यही रात सोचने के लिए बाकी है
कल सुबह लाने की अपनी ही ज़िम्मेदारी है
एक तरफ सुबह का उजाला है
एक तरफ स्याह अन्धेरे की हवस तारी है
वक्त क्या वेश धर के आएगा
कोई बिरला ही समझ पाएगा
असली चेहरा कहीं छुपा होगा
एक मुखौटा ही मुस्कुराएगा
कुछ समझ पाने की दुश्वारी है
बस यही रात सोचने के लिए बाकी है
कल सुबह लाने की अपनी ही ज़िम्मेदारी है ...
रात सोते में ही इस शहर के लोग,
अपनी आँखों को गंवा बैठे हैं
सुबह जब निकलेगा सूरज तो नहीं जानेंगे
उनके आगे ये अन्धेरा है या वो नींद में हैं
आँख पर पर्दा पड़ा है जो ज़ात मजहब का
या कि केसरिया-सब्ज़ परचम का
उनको मालूम कहाँ अंधे हैं कि परदे हैं.
कौन समझाए भला कौन उन्हें समझाए,
बस यही रात सोचने के लिए बाकी है
कल सुबह लाने की अपनी ही जिम्मेदारी है!!
अपनी आँखों को गंवा बैठे हैं
सुबह जब निकलेगा सूरज तो नहीं जानेंगे
उनके आगे ये अन्धेरा है या वो नींद में हैं
आँख पर पर्दा पड़ा है जो ज़ात मजहब का
या कि केसरिया-सब्ज़ परचम का
उनको मालूम कहाँ अंधे हैं कि परदे हैं.
कौन समझाए भला कौन उन्हें समझाए,
बस यही रात सोचने के लिए बाकी है
कल सुबह लाने की अपनी ही जिम्मेदारी है!!
Bahut sunder rachna ..sarthak srujan hetu hardik badhai aapko.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
हटाएंसत्य को कहती रचना , दर्द , आक्रोश की चिंगारी और एक अव्यक्त भय है कल की सुबह में
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंये जुगलबंदी लाजवाब है पदम जी ...
जवाब देंहटाएंपता नहीं क्या होने वाला है कल में ...
आभार आपका
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