गुरुवार, 24 जून 2010

आस्था बनाम बाज़ार

वर्षों से रोज़ मोहन नगर की मंदिर,पीर बाबा की मज़ार और हिंडन नदी के
किनारे साईं उपवन वाले साईं बाबा के मंदिर पार करते हुए बाज़ार, बहुत सी
रिहाईशें और कंक्रीट के फ्लाई ओवर पार करते हुए अपने आफिस पहुँचता हूँ...
और इसी रास्ते आना भी होता है... लेकिन मुझे हर आस्था स्थल एक बाज़ार के
रूप मे ही दीखता है .. ..जिस दिन पीर पर चमकदार गोटे लगी हरी-हरी चादरों
और शीरयों ((प्रसाद की दुकानें, और ट्रैफिक के आगे खड़े हो कर अपनी अपनी
दूकान की ओर आकर्षित करते दूकानदार दीखते हैं तो पता चल जाता है आज
बृहस्पतिवार (पीर का दिन) है, और आगे साईं बाबा के मंदिर के आगे भी शाम
को श्रद्धालुओं की कारों और वाहनों के कारण लगे जाम की स्थिति और फूल
माला के साथ खील बताशे और चीनी के गट्टों से सजी धजी दुकानों से पता चलता
है कि आज साईं बाबा का दिन है ... और नौरात्रों मे तो चुनरी नारियल और फल
वालों की तो पौ बारह रहती ही है .. कई बार रुक कर मैंने इन स्थानों पर हो
रही गतिविधियों को नजदीक से देखने का प्रयास किया. किसी आराध्य के लिए
नियत दिन के बारे मे धार्मिक आस्था की बात तो समझ मे आती है, लेकिन उन
दिनों को भुनाने के लिए जो बाज़ार इन धार्मिक स्थलों के निकट पैदा होते
हैं, उन्हें देखें तो लगता है कि ईश्वर तक पहुचने के लिए आस्था के
अतिरिक्त उनकी अपनी एक अलग और समानांतर व्यवस्था है ... इन्हें देख कर तो
यही लगता है कि अगर ये न होते तो शायद अपने आराध्य तक पहुँच पाना भी शायद
संभव न होता ... क्योंकि जैसे ही कोई श्रद्धालु पहुँचता है उसके वाहन से
लेकर चप्पल जूते, व्यक्तिगत सामान से लेकर बिना लाइन के दर्शन की
व्यवस्था और आराधना सामग्री और नियम तक की व्यवस्था धन के हाथों बिकाऊ
दिखती हैं... जहाँ एक आम आदमी को घंटों अपने आराध्य के लिए लाइन मे लगना
पड़ता है वहीँ किसी पूंजीपति के लिए धर्मस्थल के ठेकेदार अलग से व्यवस्था
करते हैं... और यही नहीं आम आदमियों के लिए तब तक भगवान के द्वार बंद कर
दिए जाते हैं...

अक्सर हमारा हरिद्वार और ऋषिकेश जाना होता है ... ऋषिकेश से
लगभग २३ किलोमीटर ऊपर पहाड़ों पर नीलकंठ महादेव की मंदिर जाना एक सुखद
अनुभव होता है ... यहाँ पर कुछ वर्षों पहले जहाँ चंद दुकानें और एक
धर्मशाला हुआ करती थीं, गाड़ियां मंदिर के पास तक जाती थीं आज लगभग तीन
किलोमीटर पहले ही बैरिकेटिंग लगा कर रोक दी जाती हैं(केवल व्यक्तिगत
वाहन) और वहीं से दुकानों का सिलसिला शुरू हो जाता है ... तीन किलोमीटर
पहले से ही दुकानदार ये कहते हुए मिल जायेंगे कि चप्पल यहीं उतार दें
प्रसाद ले लें... अपने हित साधने के लिए आपको तीन किलोमीटर नंगे पैर
चलाने की व्यवस्था भी धर्म के इसी बाज़ारीकरण की ही देन है... यही नहीं...
नीलकंठ से सात आठ किलोमीटर और ऊपर चढ़ाई चढते हुए माता पार्वती जी और उसके
भी आगे भैरव बाबा की गुफा... और उससे भी आगे दो तीन और गुफाएं (जहाँ पैदल
जाना भी कष्ट साध्य है) तक पेप्सी कोक और अंकल चिप्स की पहुँच अविरल बनी
हुई है ...

चढ़ावे की मात्रा और श्रद्धा के बीच क्या सम्बन्ध है ये तो ईश्वर
जाने, लेकिन एक बात जो स्पष्ट दिखती है कि लालच,,स्वार्थ और अवसरवादिता
ने ईश्वर और आस्था को भी बिकाऊ बना लिया है ... और इसके लोगों की
मानसिकता भी उतनी ही ज़िम्मेदार है... जो प्रसाद या चढ़ावे के अनुपात के
आधार पर अपनी श्रद्धा और आस्था को प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं ...
और इसमें सीधे सादे (तथाकथित कैटल क्लास) लोगों के साथ पढ़े लिखे
बुद्धिजीवी भी शामिल हैं ... इस गोरख धंधे मे (यद्यपि गोरखनाथ जी ऐसे
धंधेबाज़ नहीं थे) आज बिजनेसमैन, मठाधीशों से ले कर सरकार तक शामिल है
...इसी व्यवस्था ने आज नेतागीरी से भी बेहतर विकल्प उपलब्ध कराये हैं...
नेताओं को जहाँ हर पांच साल बाद अपनी औकात दुबारा रिन्यू करनी होती है
वहीँ आस्था के व्यापारियों को ये सुविधा आजीवन मिलती है ... मठों, वक्फ
बोर्डोंमे अरबों, करोड़ो की
संपत्ति और ज़मीनों का या तो बंदरबांट किया जा रहा है या फिर इनका कोई
सामाजिक उत्थान मे प्रयोग नहीं किया जा रहा है ... अंदर की तस्वीर तो
कितनी काली है ये सोच नहीं सकते लेकिन कुछ छोटे-छोटे नमूने ज़रूर हैं जिसे
यहाँऔर
यहाँ देखिये... धर्म और
आस्था के नाम पर करोड़ो रूपये बिना किसी उपयोग के बेकार पड़े हैं ... जिनका
अगर एक हिस्सा भी समाज को वापस कर दिया जाए तो शायद तस्वीर कुछ और हो ...
इस दिशा मे कुछ
सार्थक प्रयास भी हो रहे हैं(नाम लिखना उचित नहीं) जिनको नज़रंदाज़ करना भी
उचित नहीं होगा...

जब तक हमें पांच रूपये के फूल या लाखों रूपये के चढ़ावों से श्रद्धा का
स्तर मापने की विचारधारा रहेगी ये बाज़ार ऐसे ही पनपते रहेंगे ... मुझे
यहाँ मुंशी प्रेम चंद की सोने की बिल्ली याद आती है ... खेद भी होता है
कि हम इक्कीसवीं सदी मे भी दस वर्ष गुज़ार चुके हैं लेकिन रूढ़ियों के फंदे
से अभी तक न निकल पाए
... पश्चिम की नकल भी करते हैं तो अकल से नहीं करते ... स्वार्थ,
बाज़ारवाद और अवसर वादिता ने सांस्कृतिक मूल्यों और आस्था तक को बिकाऊ बना
दिया है ... एक प्रश्न मेरे मन मे उठता है कि "ईश्वर ने अपनी हितसिद्धि
के लिए इंसानों की रचना की है ... या इंसानों ने अपनी हितसिद्धि के लिए
ईश्वर और धर्म की रचना की है "


*जहाँ विवेक रूढ़ियों का दास हो *

*जहाँ आस्था का कारण त्रास हो *

*जहाँ भेड़ व्यवस्था का वास हो *

*वहाँ कैसे प्रगति का उजास हो *

*जहाँ प्रेम का मापन उपहार हो ***

* जहाँ योग्यता का द्योतक प्रचार हो *

* जहाँ मेहनत से बढ़कर आस हो *

* वहाँ कैसे प्रगति का उजास हो *

* *

*जहाँ प्रेम की कीमत पैसा हो *

*जहाँ न्याय मेमने जैसा हो *

*जहाँ लघुतर का उपहास हो *

*वहाँ कैसे प्रगति का उजास हो *

* *

* जहाँ मात्रि शक्ति अपमानित हो *

* जहाँ भ्रष्ट, छली सम्मानित हो *

* जहाँ दया धर्म का ह्रास हो *

* वहाँ कैसे प्रगति का उजास हो *

* *

Posted via email from हरफनमौला

रविवार, 20 जून 2010

इक नज़र का नशा मुकम्मल यूँ





बिन तुम्हारे भी क्या किया जाए
अब मरा जाए या जिया जाए 


लुट गया सब न कुछ रहा बाकी
लुत्फ़-ए-आवारगी लिया जाए 


इस से बेहतर कि शिकायत रोएँ
चाक दामन न क्यों सिया जाए 


इक नज़र का नशा मुकम्मल यूँ
उम्र भर मय न फिर पिया जाए 


इश्क है आज दिमागों का शगल
यूँ न हो ‘दिल’ से हाशिया जाए 


अब तो नेज़ा-ए-इश्क पे सर है
जिस्म अब जाए जाँ कि या जाए 


अजब गज़ल है जिंदगी की भी
रुक्न साधूँ तो काफिया जाए



छुट्टियों नेट से दूर होने के कारण एक लंबे अघोषित अंतराल के बाद ब्लॉग पर अपनी सक्रियता पुनः प्रारम्भ करता हूँ .... छुट्टियों में अपने जन्मस्थान या 'मुलुक' जाने का उत्साह और लोभ हमेशा उधर को खींचता है ... लेकिन अपने जन्मस्थान से काफी दूर होने के कारण वर्ष में एक दो बार ही प्रतापगढ़ जाना हो पाता है ... इधर लखनऊ में भांजेकी सगाई का समाचार मिलते ही हमें लगा कि मौका भी है दस्तूर भी ... इसी बहाने लखनऊ होते हुए प्रतापगढ़ भी कुछ दिन रह लेंगे ... हर बार की तरह इस बार भी सब की प्लानिंग यही थी कि कार से गाज़ियाबाद से लखनऊ और फिर प्रतापगढ़ तक का सफर किया जाय .बच्चों का तर्क है कि कार से लोंग ड्राइव के मज़े भी मिल जायेंगे और इसमें जहाँ भी मन हो रुक कर खाते पीते जाया जा सकता है ... लेकिन मेरे पूर्व के अनुभव बताते हैं कि कार से हर लॉन्ग ड्राइव का मज़ा मुझे अकेले ही लेनापड़ता है .. क्योकि ड्राइव पर हम जब भी निकले होते हैं... पन्द्रह बीस किलोमीटर के बाद कार की आगोश में मै ही मिलता हूँ.. शेष सभी नींद की आगोश में जा चुके होते हैं ... और तब तक सोते रहते हैं जब तक कि गंतव्य न आ जाय ... और तो और लगभग पांच सौ किलोमीटर की लंबी यात्रा के दौरान कई बार तो मुझे भी झपकी आ जाती .. और एक सेकेण्ड को कार दायें या बाएं झूल जाती ... और ऐसा लगभग हर बार होता ... इस लिए इस बार फैसला किया कि हमें कार से न चलकर ट्रेन की सुकूनदायकयात्रा करनी चाहिए ... थोड़ी मुश्किल लेकिन बेहद सुकून के साथ लखनऊ पहुँच गए .. लेकिन गर्मी ने अपने पलक/फलक पांवड़े बिछा रखे थे .. या कहिये मोर्चेबंदी कर रखी थी ...तीन दिन के लखनऊ प्रवास के दौरान मै व्यस्तता के चलते चाह कर भी अपने ब्लोगर बंधु(छोटा भईया) राजीव नंदन द्विवेदी और माननीय सरवत जमाल साहब से मुलाक़ात नहीं कर सका और प्रतापगढ़ चला गया ... प्रतापगढ़ में विद्युत और सड़कों की ऐसी व्यवस्था देख आँखें चुंधिया गयीं... चुन्धियाना वाजिब भी था क्योकि जब दिन में चौबीस घंटे में अट्ठारह घंटे (के बाद) बिजली आती तो आँखें चुंधिया जाती... सौर ऊर्जा से एक छोटा पंखा चलता जो ऊंट के मुहं में जीरे का काम करता .... दिन भर की प्रचंड गर्मी के बाद रात को अगर हवा चल जाती... तब तो रात किसी तरह पार हो जाती लेकिन ऐसा चंद दिनों हुआ ... आठ दस दिन बाद एक दिन की आंधी ने मेरे घर की ओर आने वाले कई विद्युत स्तंभ धराशाई कर के रही सही कसर भी पूरी कर दी ... गर्मी से बचने का एक ही उपाय था घर से घूमने निकल जाओ ... इस लिए अपने छोटे भाई के स्कूल की वैन से रोज़ कहीं न कहीं घूमने का प्लान बनता और निकल जाते घूमने ... इसी बीच एक शाम अविनाश वाचस्पति जी का फोन आया कि ललित शर्मा जी दिल्ली की शोभा बढा रहे हैं और आप कहाँ है ...मैंने शर्मा जी, और राजीव तनेजा जी से अपनी मजबूरी बताई और क्षमा प्रार्थना भी की ...मेरी दूरी और मजबूरी दोनों को ध्यान में रखते हुए मुझे छूट दे दी गयी.... चंद दिनों में वापस गाज़ियाबाद आ गया ....घर से मेरे बड़े भैया अपनी इंडिका से लखनऊ के लिए निकले थे ... कुछ समय बाद फोन आया कि दोपहर की धूप
में ए सी चला कर सफर करते समय उन्हें झपकी आ गयी और चलते हुए ट्रक में पीछे से टक्कर मार दी है ... शुक्र है कि गाड़ी के नुक्सान के अलावा कोई  शारीरिक क्षति नहीं हुई क्योकि ट्रक आगे को जा रहा था .. . अफ़सोस करते हुए हम ट्रेन पर बैठे और वापस आ गए .. अब आप सोचेंगे खा म खा इत्ती कहानी बताई इस से क्या फायदा ... टेम खराब किया ... तो इस कहानी से सीख ये मिलती है कि
१- ब्लॉग से बिना बताए कुछ दिन के लिए खिसक लेने में कोई हर्ज नहीं
२- ज्यादा लंबा सफर अगर कार से करना हो तो प्रोफेशनल ड्राइवर को साथ ले
लें या दो लोग चलाने वाले होँ
३ -सफर रात का अच्छा होता है लेकिन करीब दो बजे से सुबह तीन बजे के बीच
एक बार नींद ज़बरदस्त आती है ... ऐसे में कहीं रुक कर झपकी ले लेना ठीक
होता है
४ -अगर ट्रक में टक्कर मारनी हो तो पीछे से मारें और चलती ट्रक में ही ...
५ -लंबे सफर के लिए कार का चुनाव विशेष परिस्थितियों में ही करें
६ -किसी शहर में जाएँ तो कितनी भी व्यस्तता हो ... ब्लॉगर खोजें और
मेहमान नवाजी का लुत्फ़ ज़रूर उठायें ...(वरना वापस आ कर झूठ मूठ का बहाना बनाना पड़ेगा)
७ -गरमी के मौसम में प्रतापगढ़ जैसे हिल (हिला देने वाले) स्टेशन पर जाने से बचें ..

बुधवार, 5 मई 2010

लेकिन मैंने हार न मानी .... (पदम सिंह)



राहें कठिन अजानी

संघर्षो की अकथ कहानी

लेकिन मैंने हार न मानी

आशाओं के व्योम अनंतिम

स्वप्नों का ढह जाना दिन दिन

संबंधों के ताने बाने

नातों का अपनापा पल छिन

क्रूर थपेड़े संघर्षों के

दुर्दिन की मनमानी,

लेकिन मैंने हार न मानी

दूर क्षितिज तक अनगिन राहें

अनबूझी सी फैली फैली

लक्ष्य कुहासे जैसा धूमिल

सभी दिशाएँ मैली मैली

कभी समय से टक्कर ली तो

कभी भाग्य से ठानी

लेकिन मैंने हार न मानी

लिए तकाज़े नए नए नित

समय खड़ा था सांझ सकारे

दुनिया के, मनके, भावों के

किसके किसके क़र्ज़ उतारे

बिखरा बिखरा बचपन देखा

टूटी हुई जवानी .....

लेकिन मैंने हार न मानी


कुछ भावों के अश्रु निचोड़े

मनुहारों के धागे जोड़े

टूटे छंद बंद रिश्तों के

जोड़े कुछ तोड़े कुछ छोड़े

निश-दिन के ताने बाने में

बुनती गई कहानी

लेकिन मैंने हार न मानी

यार मिले तो यारी कर ली

दुःख की साझेदारी कर ली

ये न हुआ पर गद्दारों से

मौके पर गद्दारी कर ली

औरों को माफ़ी दे दी

पर अपनी गलती मानी

मैंने तम से हार न मानी

आँखें नम थी पर मुस्काए

रुंधे गले से गीत सुनाये

शब्दों की माला पहनाई

रस छंदों के दीप जलाए

प्रभु को हँस कर किये समर्पित

नयनों निर्झर पानी

लेकिन मैंने हार न मानी

Posted via email from हरफनमौला

सोमवार, 3 मई 2010

हम हमेशा को एक हो जाएँ

एक पुरानी रचना दे रहा हूँ ... शुरूआती दौर की रचना है .... पता नहीं कैसी लगे आपको ....

चलो एक दूसरे में खो जाएँ
हम हमेशा को एक हो जाएँ

भटकती उम्र थक गयी होगी
नज़र पे धुंध पट गयी होगी
मन की दीवार से सुकून जड़ी
कोई तस्वीर हट गयी होगी
आओ अब परम शान्ति अपनाएँ
हम हमेशा को एक हो जाएँ

पहाड़ से उरोज धरती के
उगे हैं ज्यूँ पलाश परती के
बसे हैं सूर्य की निगाहों में
कसे है आसमान बाहों में
आओ हम मस्त पवन हो जाएँ
सारी दुनिया में प्रेम छितारायें

कई बादल झुके हैं घाटी में
शिशु सा लोट रहे माटी में
लगा है काजल सा अंधियारा
शाम की शर्मीली आँखों में
एक स्वर एक तान हो जाएँ
साथ मिल झूम झूम कर गायें
हम हमेशा को एक हो जाएँ


Posted via email from हरफनमौला

रविवार, 2 मई 2010

इंडियागेट, बोट क्लब,और शिकारियों का शिकार


आजकल कुछ ठीक नहीं चल रहा मेरे जीवन में .... इस लिए ब्लॉग पर भी कम सक्रिय हूँ ...
फिल हाल अपनी हाजिरी दर्ज करने के लिए आपको आज ले चलता हूँ दिल्ली के इंडियागेट पर .... इंडियागेट के बगल में ही एक गंदले पानी का छिछला सा तालाब है जिसमे जहां तहां गुटखे के खाली पाउच और कोल्ड ड्रिंक की खाली बोतलें तैरती रहती हैं ... लोग इसे बोट क्लब के नाम से जानते हैं .....यहाँ आप तीस रूपये में पैडल बोट या रोइंग बोट का मज़ा ले सकते हैं .... पिछले दिनों कहीं जाते समय थोड़ी देर के लिए यहाँ रुका ...यहाँ की चंद तस्वीरें लेने के बाद मैंने देखा कि लोगों में फोटो खिचवाने और खींचने का बहुत क्रेज है ... लोग शूट कर रहे थे ... मैं शूटरों को शूट कर रहा था ... और शिकारी खुद शिकार हो गए .... चंद फोटो आपके लिए -

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

चप्पल चोरी बनाम दरोगा जी ....(पद्‌म सिंह)


19-04-2010 की सुबह... नौचंदी एक्सप्रेस ट्रेन धड़ धड़ कर चली जा रही थी .... लगभग पांच छह के आसपास का वक्त था... ट्रेन की बर्थ पर लेटे लेटे लेट होती ट्रेन के बारे में सोच रहा था ... कभी कभी किसी के मोबाइल की घंटी मेरी तन्द्रा तोड़ देती ... कुछ लोग हाथों में ब्रश या तौलिया लिए हुए बाथरूम की तरफ आवाजाही कर रहे थे .... इतने में मैंने महसूस किया कि पड़ोस की सीट के एक सज्जन पूरी बोगी में इधर उधर घूमते दिख रहे थे, कभी कभी सिजदे की अवस्था में आ जाते तो कभी झुके झुके ही इधर उधर सब की सीटों के नीचे झांकते घूम रहे थे ... साथ ही कुछ बडबडाते भी जा रहे थे ... ज्यादातर लोग सो रहे थे लेकिन उनकी इस हरकत पर कुछ लोग उठ भी गए ... कुछ
ने उत्सुकता वश पूछा भी.....
क्या हुआ भाई साहब ?
साले चोर हैं.... वर्दी के नाम पर कलंक हैं
साला शकल से ही चोर लग रहा था
मेरे भी कान खड़े हो गए
.... क्या हो गया भाई साहब ? उत्सुक्ताश मैंने भी पूछ ही लिया .. तो मामला समझ में आया........रात ये महोदय जब हापुड में अपनी सीट पर आये तो उस पर डबल स्टार वाले एक दरोगा जी उनकी सीट पर बैठे हुए थे... उनको देखते ही अपनी वाणी को अधिकाराना करते हुए बोले,
४९ नम्बर, लोअर बर्थ..... ये तो मेरी सीट है,... आप यहाँ कैसे? आप लोग अपनी सीट पर जाइए प्लीज़...
इंस्पेक्टर जी उनकी इस बात पर अंदर से कुछ सुलगे,
बोले तुम्हारी सीट है तो बैठ जाओ...
थोड़ी देर में उतरना ही है हमे तो ..
अरे नहीं आप आगे देख लो मुझे सोना है...
आदमी रिज़र्वेशन इसी लिए करवाता है ....
इंस्पेक्टर जी अपना गुस्सा दबाते हुए सामने की खाली सीट पर बैठ गए. भाई साहब थोड़ी देर बैठते भी लेकिन कह चुके थे कि सोना है ... सो दोनों चप्पल उतारी और सीट के नीचे खिसका दी .... अटैची से चादर निकाली और सिराहने रख कर अटैची भी सीट के नीचे खिसका दी ... और लेट गए फिर इंस्पेक्टर जी से थोड़ा उपेक्षित स्वर धारण करते हुए पूछ बैठे ..
कहाँ तक जाओगे ?
इंस्पेक्टर जी का अहं चोट खाए हुए सांप जैसा पहले ही हो रहा था, बिफर गए और सीधे सीधे हमला बोल दिया तुझसे क्या मतलब? बड़ा लाटसाहब बन रहा है तू? वर्दी में हूँ तो बेवकूफ समझ रहा है? चुप चाप पड़ा रह वरना एक मिनट लगते हैं ठीक करने में... भाई साहब कुलबुलाए बहुत लेकिन इंस्पेक्टर के तेवर के आगे कुछ बोल न सके और तिलमिला कर रह गए... मामला वहीँ थम गया .... लोग सो गए .... इंस्पेक्टर और उनके साथ दो सिपाही रात में कहाँ उतर गए किसी ने ध्यान नहीं दिया था.
सुबह हुई तो पता चला कि भाई साहब की एक चप्पल गायब थी.... नई चप्पल... लेदर की चमकती हुई ...एक चप्पल को लिए भाई साहब बैठे थे ... चेहरे पर मातम जैसा माहौल था ... उनकी बातों और चेहरे के भाव से यही लग रहा था कि उन्हें असीम वेदना और कष्ट हो रहा था चप्पल के खो जाने से... बिन जल मछली की तरह तड़प रहे थे कई बार पूरी बोगी छान मारी थी .... कहीं कोई सुराग नहीं ... आस पास के लोग भी उठ कर बैठ गए... -----किसी ने कहा पैर से लग कर इधर उधर हो गयी होगी,
तो बोले अरे भाई तीन चार बार पूरी बोगी छान मारी है कहीं नहीं दिखी
-----किसी ने कहा चोर ले गया होगा साले चोर भी बहुत हैं आजकल ट्रेनों में
लेकिन चोर ले जाता तो दोनों ही ले जाता..... एक चप्पल का क्या करेगा ?
और धीरे धीरे लोग बात चप्पल की समस्या से रेलवे की सुरक्षा व्यवस्था, लालू और ममता की रेल व्यवस्था की तुलना करते हुए क़ानून व्यवस्था, और सरकार तक चली गयी....
अचानक चप्पल भाई ने अपने मन में बहुत देर से उमड़ घुमड़ कर रही बात सब के सामने रख ही दी....
अरे उसी का काम है
साले चोर तो होते ही हैं
वर्दी पहन कर फ्री सफर करते हैं
देश को लूट के डाल दिया है
ये उसी इंस्पेक्टर का काम है
मुझे तो लगता है कि उसी ने अपना कमीना पन दिखाया और एक चप्पल ट्रेन से बाहर फेक दी नहीं तो एक चप्पल का चोर क्या करता ...
साला देखने में ही चोर लग रहा था ..... देखा नहीं पुलिस में हो कर बड़े
बड़े बाल रखे हुए था
कहीं तो होती बोगी में होती तो ,.....
उनको अंदर से जितना दारुण दुःख और अफ़सोस हो रहा था वो उनकी बातों और चेहरे के भाव से स्पष्ट झलक रहा था लेकिन लोग उनकी बातों पर ध्यान कम दे रहे थे और राजनीति पर चर्चा ज्यादा कर रहे थे ... वो महोदय दरोगा जी को कोसते हुए बार बार कभी एक बची हुई चप्पल तो कभी खाली पैर को देखते हुए इन्स्पेक्टर को ही गालियाँ दिए जा रहे थे...जिसपर सब लोगों के साथ सामने बैठे एक सिपाही महोदय भी मौन साध कर स्वीकार रहे थे ... या हो सकता है कुढ़ भी रहे हो पर बोले कुछ नहीं... वो महोदय एक पैर में चमकती हुई चप्पल पहने मन ही मन डिप्रेशन में जाने को तैयार लग रहे थे ... कोई उनके कष्ट को देख एक सलाह दे बैठे ... बोले एक बार ट्रेन के दरवाज़े पर खड़े हुए अचानक पैर से फिसल कर मेरी चप्पल गिर गयी थी .... मैंने दूसरी चप्पल भी फेक दी थी ... क्योकि चप्पल तो मिलनी नहीं थी ... तो हो सकता है किसी और को ही मिल जाए इस लिए दूसरी चप्पल भी फेक दी ...

लोगों से उनका कष्ट देखा नहीं गया ... बोले आप खामखा टेंशन मत लो... फेको इसे भी........ बाहर चारबाग स्टेशन से निकलते ही पुराने बस अड्डा के बगल में छोटी सी मार्केट है वहीँ से दूसरी चप्पल मिल जायेगी... जो गया उसके बारे में सोचने से क्या फायदा ....
सर्व सम्मति से प्रस्ताव पारित हुआ और ... दूसरी चप्पल भी खिड़की से बाहर फेक दी गयी ...
ट्रेन दो घंटे लेट हो चुकी थी .... हर छोटे छोटे स्टेशन पर दस दस मिनट रुक रही थी ... सुबह के आठ बजने वाले थे... लोग धीरे धीरे चप्पल वाली बात से ध्यान हटाने लगे थे और ट्रेन की देरी को कोसने में लगे थे ...(यद्यपि चप्पल भाई अब भी अफ़सोस में बिना कुछ बोले खिडकी से बाहर देख रहे थे... दोनों पैर खाली हो चुके थे)
इतने में लखनऊ चारबाग स्टेशन का आउटर आ गया ट्रेन धीमी हो चली थी कुछ लोग चलती ट्रेन से ही कूद कर चल दिए थे (संभवतः टिकट न रही हो)... आउटर आते ही सब अपने सामान समेटने लगे ... कुछ अपने सामान ले कर गेट पर भी पहुँच चुके थे ... इतने में कुछ ऐसा दृश्य दिखा जिसने सब को अवाक् कर दिया इतनी देर सलाह देने वाले लोग इसे देखते ही जल्दी से जल्दी प्लेटफार्म पर धीमी हो चली ट्रेन से उतर जाने को उतावले होने लगे ......
हुआ ये कि जैसे ही चप्पल भाई ने अपनी ट्रोली वाली अटैची सीट के नीचे से बाहर खींची ... उसमे फंसी हुई एक चमकदार लेदर की नयी चप्पल सामने थी... हुआ ये था कि चप्पल उनकी अटैची की ट्रोली में फंसी थी, जब भी वो अटैची इधर उधर खिसका कर देखते चप्पल भी उसके साथ खिसक जाती और दिखती ही न थी ... लेकिन वो एक चप्पल अपने हाथों से बाहर फेक चुके थे ... ट्रेन रुक
गयी थी ... उनकी मनोदशा क्या थी ....इसे देखने के लिए कोई नहीं रुका ...

(मेरे मन में एक बार विचार आया कि कह दूँ.... भाई जल्दी से इसे भी फेक दो .... हो सकता है किसी को दोनों मिल जाय... लेकिन मैंने सामान और विचार दोनों को समेट कर उतर जाने में ही भलाई समझी)

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

मालो जर हो तो मुत्तहिद रहना, प्यार हो गर तो फिर बिखर जाना

एक बार गुरु नानक साहब किसी गाँव से गुजर रहे थे अपने शिष्यों और अनुगामियों के साथ, रात होने के कारण उसी गाँव में डेरा डाल दिया ... गाँव वालों ने उनका बहुत विरोध किया और गालियाँ दी ... सुबह जब गुरुनानक जी उस गाँव से चलने को हुए तो उनहोंने गाँव वालों से कहा कि तुम सब यहीं इकट्ठे रहो, संगठित रहो... और आगे बढ़ गए, कुछ आगे फिर किसी रात को  एक गाँव में रुके.... गांव वालों ने नानक जी और उनके शिष्यों की बहुत सेवा की... जितना उनकी सामर्थ्य थी उतना किया .... सुबह जब नानक साहब फिर सफर पर निकलने लगे तो गाँव वालों को बुला कर कहा ..... जाओ तुम लोग बिखर जाओ ... किसी शिष्य ने ये सब देखा सुना और उत्सुकतावश पूँछ बैठा ... कि आपने ऐसा क्यों किया ? जिस गाँव वालों ने आपका इतना अपमान किया उनको तो आपने इकट्ठे रहने का आशीर्वाद दिया ... और जिस गाँव वालों ने आपकी इतनी सेवा सूश्रुषा की उनके लिए  आपने कहा कि ये गाँव उजड जाए ... लोग बिखर जाएँ ..  ये बात समझ से परे है .... कृपया स्पष्ट कर के कृतार्थ  करें ... गुरु नानक देव हँसे और बोले ... वो इस लिए, कि बुरे लोगों का एक जगह रहना ही ठीक है ... जबकि अच्छे और प्यारे इंसानों का पूरी दुनिया में बिखर जाना श्रेयस्कर है ... जिससे दुनिया में प्रेम और करुणा का प्रकाश फ़ैल सके ....


आज हर अच्छाई के लिए यही पुकार है कि समाज में फैले और धनात्मक उत्कर्ष में अपना योगदान दें ... न्याय, सच्चाई और अच्छाई का आत्मकेंद्रित और निष्क्रिय  होना बुराई को बढ़ावा देने जैसा ही  है ---

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आज आपको फिर  एक गज़ल दे रहा हूँ .... यद्यपि मै गज़ल लिखता नहीं ... लेकिन कवि को किसी सीमा में भी नहीं बंधना चाहिए इस लिए प्रयोग के तौर पर चंद अशरार आपकी नज़र है ....गज़ल का अंतिम शेर ऊपर के प्रसंग से प्रभावित है ...


उनसे   बिछड़े  तो  आज ये जाना

कितना मुश्किल है दिल को समझाना

 

दिल की किस्मत है टूट कर मिलना

और फिर  टूट  कर   बिखर जाना


सर तो कहता था प्यार मत करना

दिल  ही पागल  था जो नहीं माना

 

मंजिलें  खुद   झुकी  हैं  सजदे में

जब  से  अपनी  खुदी को पहचाना

 

फिर  कोई  काम  निकल  आया है

उसने  फिर  आज   मुझे  पहचाना

 

मै  जो  कहता  हूँ  तुझे  पी  लूंगा 

और   हँसता  है   मुझपे   पैमाना

 

आज   भूखा  है   पडोसी    मेरा

आज   मंदिर  मुझे   नहीं   जाना

 

प्यार  के  बोल  मुफलिसी  के लिए

जैसे  तिनके  का   सहारा    पाना

 

रास्ते   तो   हजार   मिलते   हैं

बड़ा   मुश्किल   है हमसफर पाना

 

मालो  जर  हो  तो  मुत्तहिद रहना

प्यार हो गर, तो फिर  बिखर जाना

 

मुफलिसी=गरीबी

माल-ओ-जर = धन दौलत

मुत्तहिद= इकठ्ठा, संगठित

 

Posted via email from हरफनमौला