बुधवार, 25 अगस्त 2010

आज़ाद पुलिस (संघर्ष गाथा -१)

आज़ाद पुलिस (संघर्ष गाथा -१)

11 जुला 2010
P100710_10.16_[03]पिछले दस वर्षों से आते जाते देखा है उसे …पुलिस वाले उसे देखते ही अपनी ड्यूटी पर सचेत हो जाते हैं …. खाली सर वाले पुलिस वाले तुरंत सिर पर टोपी पहन लेते हैं … और रिश्वत लेते हाथ  इसे देखते ही यकायक रुक जाते हैं … कृषकाय… साधारण सा दिखने वाला   इंसान…. खाकी वर्दी, सर पर पुलिस की टोपी… और हाथ मे पुलिस जैसा ही डंडा लिए हुए वो अपना पुराना सा रिक्शा खींचते हुए… शहर मे कहीं भी कभी भी दिखाई दे जाता है…. यूँ तो कोई विशेष बात नहीं लगती  है इसमें  .. लेकिन एक बात और होती है जो बरबस लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करती है…. उसके  रिक्शे के आगे पीछे हर जगह “आज़ाद पुलिस” लिखा हुआ है … रिक्शे के पीछे  भी “आजाद पुलिस” और “हम बदलेंगे जग बदलेगा” और “भ्रष्टाचार के  खिलाफ” “अंधा क़ानून”  जैसे स्लोगन लिखे हुए होते हैं …वो चलाता तो रिक्शा है लेकिन अपने आपको आज़ाद पुलिस कहता है.. पल्स पोलियो, दहेज विरोध तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ बैनर लगा कर लोगों को जागृत करने वाले इस व्यक्ति के बारे मे कई बार उत्सुकता हुई कि यह कौन है … यह आजाद पुलिस क्या है ? कौन है वह व्यक्ति जो अपने  आप को आजाद पुलिस कहता है ?आखिर क्यों धूमता है वो अपनी रिक्शे पर आजाद पुलिस का बोर्ड लगा P100710_10.16कर ? आज सुबह अचानक जब उसका रिक्शा सामने से गुज़रा तो मुझसे रहा नही गया और मैंने उसकी वास्तविकता जानने का मन बना लिया …
रिक्शा किनारे लगवा कर मैंने जब अपनी उत्सुकता उसके सामने रखी तो उसने अपने बारे मे जो कुछ बताया वो सुन और देख कर मै हतप्रभ रह गया …. जब मैंने उससे उसके बारे मे पूछा तो उसने कहा भाई साहब मै   तो लेखक हूँ… मैंने अपना जीवन न्याय के लिए संघर्ष और गरीबी मे काट दिया है……लेकिन आज तक मुझे प्रशासन या न्याय व्यवस्था से न्याय नहीं मिल सका है … पिछले पन्द्रह सालों से मै प्रशासन के लचर रवैये और दमनात्मक नीतियों का जीता जागता उदाहरण हूँP100710_10.16_[02]… सरकार की कोई भी नीति गरीबों और लाचारों तक न् पहुँच पाने का कारण है प्रशासन का लचर और गैर जिम्मेदाराना रवैया … उत्सुकतावश उसके बारे मे मैंने कुछ और जानने की नीयत से उसके जीवन के बारे मे पुछा … तो उसने अपनी कहानी प्रमाणों के साथ(जो उसके रिक्शे मे ही गद्दी के नीचे रखे थे) एक एक कर मेरे हाथ पर रख दिए . इसने अपने बारे मे जो कुछ बताया उसे आगे लिखता हूँ .
बात चीत मे शिष्ट और प्रवाहमयी व्यावहारिक बातें करने वाले इस व्यक्ति ने अपना नाम ब्रह्मपाल प्रजापति बताया… सात भाइयों और एक बहन के बीच ब्रह्मपाल का गरीबी ने बचपन से ही साथ नहीं छोड़ा… बचपन मे पढ़ने की इच्छा रखने वाले ब्रह्मपाल गरीबी के कारण केवल दूसरी कक्षा तक ही पढ़ सके बारह वर्ष की कच्ची उम्र मे परिवार के भरण पोषण का जिम्मा ब्रह्मपाल पर होने के कारण चाय की दूकान पर नौकरी करनी पड़ी … खेलने कूदने और पढ़ने की उम्र मे इनके सामने परिवार की दो जून की रोटी का ही लक्ष्य था … लेकिन स्कूल छोड़ने की टीस हमेशा चुभती रही … स्वाभिमान ब्रह्मपाल के स्वभाव मे कूट कूट कर भरा था.. यही कारण था कि वो चाय की दूकान पर नौकरी अधिक दिन न् कर सका और मालिक की गाली गलौच से परेशान हो कर दिल्ली आ गया जहाँ उसने अथक मेहनत कर के कुछ रूपये जोड़ लिए … अपनी दमित इच्छाओं के वशीभूत ब्रह्मपाल ने जीविकोपार्जन के लिए बम्बई का रुख किया और मेहनत करते हुए परिवार को पैसे भेजता रहा …
कुछ सालों बाद परिवार वालों की जिद पर जब ब्रह्मपाल अपने गाँव वापस आया तो फिर बम्बई नहीं गया और परचून की दूकान खोल ली … इसी बीच अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के वशीभूत ब्रह्मपाल ने  कक्षा दो तक की शिक्षा के बावजूद भी अनेक कविताओं और लघु उपन्यासों की रचना की . उसकी इच्छा थी कि उसके उपन्यास पर अगर कोई फिल्म बना दे तो उसकी गरीबी दूर हो जाय.
इसी बीच ब्रह्मपाल का परिचय हापुड़ निवासी एक व्यक्ति शम्भूनाथ शर्मा से हुआ … शम्भूनाथ शर्मा ने जब उसका उपन्यास पढ़ा और लालच दिया कि यदि तुम आठ हजार रुपये का इन्जाम करो तो तुम्हारी उपन्यास पर फिल्म बनवा दूँगा … मेरे जानने वाले बहुत से लोग फिल्म इंडस्ट्री मे हैं …फिर तुम्हें लोग “गम के आँसू” के लेखक के रूप मे जानेंगे …. घर की माली हालत खराब होने के बावजूद ब्रह्मपाल ने आठ हजार रुपयों का इंतजाम किया और कहानी सहित शम्भूनाथ को दे दिया …शम्भूनाथ ने वो कहानी अपनी कह कर किसी प्रोड्यूसर को बेच दी …और ब्रह्मपाल को दुत्कार कर भगा दिया …  इस कहानी पर फिल्म भी बनी…  ब्रह्मपाल का अब तक का जीवन दुःख और संघर्षों से घिरा रहा…. लेकिन यहाँ से उसके संघर्षों का दूसरा अध्याय प्रारंभ होने वाला था…
शेष आगे .........

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

क्रान्ति सुनहरा कल लाएगी


क्रान्ति सुनहरा कल लाएगी

संघर्षों का फल लाएगी

 

स्वप्न बंधे जंजीरों में

आशाएं कुंठित रुद्ध भले होँ

आज समय विपरीत सही

विधि के निर्माता क्रुद्ध भले होँ

स्वेद लिखेगा आने वाले

कल को बाज़ी किसकी होगी

झंझावात रुके हैं किससे

राहें होँ अवरुद्ध, भले होँ

जाग पड़ेंगे सुप्त भाग्य

कुछ ऐसा कोलाहल लाएगी

क्रान्ति सुनहरा कल लाएगी

संघर्षो का फल लाएगी ...

 

हमने सीखा नहीं समय से

डर जाना घुट कर मर जाना

क्रान्ति और संघर्ष रहा है

परिवर्तन का ताना बाना

दुर्दिन के खूनी पंजों से

खेंच सुपल फिर वापस लाना

ठान लिया तो ठान लिया

पाना  है या कट कर मर जाना

थर्रायेंगे दिल दुश्मन के

वो भीषण हलचल लाएगी

क्रांति सुनहरा कल लाएगी

संघर्षों का फल लाएगी….

 

याचक बन कर जीना कैसा

घुट घुट आंसू पीना कैसा

रोशन होकर ही जीना है

धुवाँ धुवाँ कर जीना कैसा 

घात लगा कर गलियों गलियों

गद्दारों की फ़ौज खड़ी है

तूफानों  से घबरा जाए

वो भी कहो सफीना कैसा

हर पगडण्डी राजमार्ग तक

आज नहीं तो कल लाएगी

क्रान्ति सुनहरा कल लाएगी

संघर्षों का फल लाएगी ….

गुरुवार, 24 जून 2010

आस्था बनाम बाज़ार

वर्षों से रोज़ मोहन नगर की मंदिर,पीर बाबा की मज़ार और हिंडन नदी के
किनारे साईं उपवन वाले साईं बाबा के मंदिर पार करते हुए बाज़ार, बहुत सी
रिहाईशें और कंक्रीट के फ्लाई ओवर पार करते हुए अपने आफिस पहुँचता हूँ...
और इसी रास्ते आना भी होता है... लेकिन मुझे हर आस्था स्थल एक बाज़ार के
रूप मे ही दीखता है .. ..जिस दिन पीर पर चमकदार गोटे लगी हरी-हरी चादरों
और शीरयों ((प्रसाद की दुकानें, और ट्रैफिक के आगे खड़े हो कर अपनी अपनी
दूकान की ओर आकर्षित करते दूकानदार दीखते हैं तो पता चल जाता है आज
बृहस्पतिवार (पीर का दिन) है, और आगे साईं बाबा के मंदिर के आगे भी शाम
को श्रद्धालुओं की कारों और वाहनों के कारण लगे जाम की स्थिति और फूल
माला के साथ खील बताशे और चीनी के गट्टों से सजी धजी दुकानों से पता चलता
है कि आज साईं बाबा का दिन है ... और नौरात्रों मे तो चुनरी नारियल और फल
वालों की तो पौ बारह रहती ही है .. कई बार रुक कर मैंने इन स्थानों पर हो
रही गतिविधियों को नजदीक से देखने का प्रयास किया. किसी आराध्य के लिए
नियत दिन के बारे मे धार्मिक आस्था की बात तो समझ मे आती है, लेकिन उन
दिनों को भुनाने के लिए जो बाज़ार इन धार्मिक स्थलों के निकट पैदा होते
हैं, उन्हें देखें तो लगता है कि ईश्वर तक पहुचने के लिए आस्था के
अतिरिक्त उनकी अपनी एक अलग और समानांतर व्यवस्था है ... इन्हें देख कर तो
यही लगता है कि अगर ये न होते तो शायद अपने आराध्य तक पहुँच पाना भी शायद
संभव न होता ... क्योंकि जैसे ही कोई श्रद्धालु पहुँचता है उसके वाहन से
लेकर चप्पल जूते, व्यक्तिगत सामान से लेकर बिना लाइन के दर्शन की
व्यवस्था और आराधना सामग्री और नियम तक की व्यवस्था धन के हाथों बिकाऊ
दिखती हैं... जहाँ एक आम आदमी को घंटों अपने आराध्य के लिए लाइन मे लगना
पड़ता है वहीँ किसी पूंजीपति के लिए धर्मस्थल के ठेकेदार अलग से व्यवस्था
करते हैं... और यही नहीं आम आदमियों के लिए तब तक भगवान के द्वार बंद कर
दिए जाते हैं...

अक्सर हमारा हरिद्वार और ऋषिकेश जाना होता है ... ऋषिकेश से
लगभग २३ किलोमीटर ऊपर पहाड़ों पर नीलकंठ महादेव की मंदिर जाना एक सुखद
अनुभव होता है ... यहाँ पर कुछ वर्षों पहले जहाँ चंद दुकानें और एक
धर्मशाला हुआ करती थीं, गाड़ियां मंदिर के पास तक जाती थीं आज लगभग तीन
किलोमीटर पहले ही बैरिकेटिंग लगा कर रोक दी जाती हैं(केवल व्यक्तिगत
वाहन) और वहीं से दुकानों का सिलसिला शुरू हो जाता है ... तीन किलोमीटर
पहले से ही दुकानदार ये कहते हुए मिल जायेंगे कि चप्पल यहीं उतार दें
प्रसाद ले लें... अपने हित साधने के लिए आपको तीन किलोमीटर नंगे पैर
चलाने की व्यवस्था भी धर्म के इसी बाज़ारीकरण की ही देन है... यही नहीं...
नीलकंठ से सात आठ किलोमीटर और ऊपर चढ़ाई चढते हुए माता पार्वती जी और उसके
भी आगे भैरव बाबा की गुफा... और उससे भी आगे दो तीन और गुफाएं (जहाँ पैदल
जाना भी कष्ट साध्य है) तक पेप्सी कोक और अंकल चिप्स की पहुँच अविरल बनी
हुई है ...

चढ़ावे की मात्रा और श्रद्धा के बीच क्या सम्बन्ध है ये तो ईश्वर
जाने, लेकिन एक बात जो स्पष्ट दिखती है कि लालच,,स्वार्थ और अवसरवादिता
ने ईश्वर और आस्था को भी बिकाऊ बना लिया है ... और इसके लोगों की
मानसिकता भी उतनी ही ज़िम्मेदार है... जो प्रसाद या चढ़ावे के अनुपात के
आधार पर अपनी श्रद्धा और आस्था को प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं ...
और इसमें सीधे सादे (तथाकथित कैटल क्लास) लोगों के साथ पढ़े लिखे
बुद्धिजीवी भी शामिल हैं ... इस गोरख धंधे मे (यद्यपि गोरखनाथ जी ऐसे
धंधेबाज़ नहीं थे) आज बिजनेसमैन, मठाधीशों से ले कर सरकार तक शामिल है
...इसी व्यवस्था ने आज नेतागीरी से भी बेहतर विकल्प उपलब्ध कराये हैं...
नेताओं को जहाँ हर पांच साल बाद अपनी औकात दुबारा रिन्यू करनी होती है
वहीँ आस्था के व्यापारियों को ये सुविधा आजीवन मिलती है ... मठों, वक्फ
बोर्डोंमे अरबों, करोड़ो की
संपत्ति और ज़मीनों का या तो बंदरबांट किया जा रहा है या फिर इनका कोई
सामाजिक उत्थान मे प्रयोग नहीं किया जा रहा है ... अंदर की तस्वीर तो
कितनी काली है ये सोच नहीं सकते लेकिन कुछ छोटे-छोटे नमूने ज़रूर हैं जिसे
यहाँऔर
यहाँ देखिये... धर्म और
आस्था के नाम पर करोड़ो रूपये बिना किसी उपयोग के बेकार पड़े हैं ... जिनका
अगर एक हिस्सा भी समाज को वापस कर दिया जाए तो शायद तस्वीर कुछ और हो ...
इस दिशा मे कुछ
सार्थक प्रयास भी हो रहे हैं(नाम लिखना उचित नहीं) जिनको नज़रंदाज़ करना भी
उचित नहीं होगा...

जब तक हमें पांच रूपये के फूल या लाखों रूपये के चढ़ावों से श्रद्धा का
स्तर मापने की विचारधारा रहेगी ये बाज़ार ऐसे ही पनपते रहेंगे ... मुझे
यहाँ मुंशी प्रेम चंद की सोने की बिल्ली याद आती है ... खेद भी होता है
कि हम इक्कीसवीं सदी मे भी दस वर्ष गुज़ार चुके हैं लेकिन रूढ़ियों के फंदे
से अभी तक न निकल पाए
... पश्चिम की नकल भी करते हैं तो अकल से नहीं करते ... स्वार्थ,
बाज़ारवाद और अवसर वादिता ने सांस्कृतिक मूल्यों और आस्था तक को बिकाऊ बना
दिया है ... एक प्रश्न मेरे मन मे उठता है कि "ईश्वर ने अपनी हितसिद्धि
के लिए इंसानों की रचना की है ... या इंसानों ने अपनी हितसिद्धि के लिए
ईश्वर और धर्म की रचना की है "


*जहाँ विवेक रूढ़ियों का दास हो *

*जहाँ आस्था का कारण त्रास हो *

*जहाँ भेड़ व्यवस्था का वास हो *

*वहाँ कैसे प्रगति का उजास हो *

*जहाँ प्रेम का मापन उपहार हो ***

* जहाँ योग्यता का द्योतक प्रचार हो *

* जहाँ मेहनत से बढ़कर आस हो *

* वहाँ कैसे प्रगति का उजास हो *

* *

*जहाँ प्रेम की कीमत पैसा हो *

*जहाँ न्याय मेमने जैसा हो *

*जहाँ लघुतर का उपहास हो *

*वहाँ कैसे प्रगति का उजास हो *

* *

* जहाँ मात्रि शक्ति अपमानित हो *

* जहाँ भ्रष्ट, छली सम्मानित हो *

* जहाँ दया धर्म का ह्रास हो *

* वहाँ कैसे प्रगति का उजास हो *

* *

Posted via email from हरफनमौला

रविवार, 20 जून 2010

इक नज़र का नशा मुकम्मल यूँ





बिन तुम्हारे भी क्या किया जाए
अब मरा जाए या जिया जाए 


लुट गया सब न कुछ रहा बाकी
लुत्फ़-ए-आवारगी लिया जाए 


इस से बेहतर कि शिकायत रोएँ
चाक दामन न क्यों सिया जाए 


इक नज़र का नशा मुकम्मल यूँ
उम्र भर मय न फिर पिया जाए 


इश्क है आज दिमागों का शगल
यूँ न हो ‘दिल’ से हाशिया जाए 


अब तो नेज़ा-ए-इश्क पे सर है
जिस्म अब जाए जाँ कि या जाए 


अजब गज़ल है जिंदगी की भी
रुक्न साधूँ तो काफिया जाए



छुट्टियों नेट से दूर होने के कारण एक लंबे अघोषित अंतराल के बाद ब्लॉग पर अपनी सक्रियता पुनः प्रारम्भ करता हूँ .... छुट्टियों में अपने जन्मस्थान या 'मुलुक' जाने का उत्साह और लोभ हमेशा उधर को खींचता है ... लेकिन अपने जन्मस्थान से काफी दूर होने के कारण वर्ष में एक दो बार ही प्रतापगढ़ जाना हो पाता है ... इधर लखनऊ में भांजेकी सगाई का समाचार मिलते ही हमें लगा कि मौका भी है दस्तूर भी ... इसी बहाने लखनऊ होते हुए प्रतापगढ़ भी कुछ दिन रह लेंगे ... हर बार की तरह इस बार भी सब की प्लानिंग यही थी कि कार से गाज़ियाबाद से लखनऊ और फिर प्रतापगढ़ तक का सफर किया जाय .बच्चों का तर्क है कि कार से लोंग ड्राइव के मज़े भी मिल जायेंगे और इसमें जहाँ भी मन हो रुक कर खाते पीते जाया जा सकता है ... लेकिन मेरे पूर्व के अनुभव बताते हैं कि कार से हर लॉन्ग ड्राइव का मज़ा मुझे अकेले ही लेनापड़ता है .. क्योकि ड्राइव पर हम जब भी निकले होते हैं... पन्द्रह बीस किलोमीटर के बाद कार की आगोश में मै ही मिलता हूँ.. शेष सभी नींद की आगोश में जा चुके होते हैं ... और तब तक सोते रहते हैं जब तक कि गंतव्य न आ जाय ... और तो और लगभग पांच सौ किलोमीटर की लंबी यात्रा के दौरान कई बार तो मुझे भी झपकी आ जाती .. और एक सेकेण्ड को कार दायें या बाएं झूल जाती ... और ऐसा लगभग हर बार होता ... इस लिए इस बार फैसला किया कि हमें कार से न चलकर ट्रेन की सुकूनदायकयात्रा करनी चाहिए ... थोड़ी मुश्किल लेकिन बेहद सुकून के साथ लखनऊ पहुँच गए .. लेकिन गर्मी ने अपने पलक/फलक पांवड़े बिछा रखे थे .. या कहिये मोर्चेबंदी कर रखी थी ...तीन दिन के लखनऊ प्रवास के दौरान मै व्यस्तता के चलते चाह कर भी अपने ब्लोगर बंधु(छोटा भईया) राजीव नंदन द्विवेदी और माननीय सरवत जमाल साहब से मुलाक़ात नहीं कर सका और प्रतापगढ़ चला गया ... प्रतापगढ़ में विद्युत और सड़कों की ऐसी व्यवस्था देख आँखें चुंधिया गयीं... चुन्धियाना वाजिब भी था क्योकि जब दिन में चौबीस घंटे में अट्ठारह घंटे (के बाद) बिजली आती तो आँखें चुंधिया जाती... सौर ऊर्जा से एक छोटा पंखा चलता जो ऊंट के मुहं में जीरे का काम करता .... दिन भर की प्रचंड गर्मी के बाद रात को अगर हवा चल जाती... तब तो रात किसी तरह पार हो जाती लेकिन ऐसा चंद दिनों हुआ ... आठ दस दिन बाद एक दिन की आंधी ने मेरे घर की ओर आने वाले कई विद्युत स्तंभ धराशाई कर के रही सही कसर भी पूरी कर दी ... गर्मी से बचने का एक ही उपाय था घर से घूमने निकल जाओ ... इस लिए अपने छोटे भाई के स्कूल की वैन से रोज़ कहीं न कहीं घूमने का प्लान बनता और निकल जाते घूमने ... इसी बीच एक शाम अविनाश वाचस्पति जी का फोन आया कि ललित शर्मा जी दिल्ली की शोभा बढा रहे हैं और आप कहाँ है ...मैंने शर्मा जी, और राजीव तनेजा जी से अपनी मजबूरी बताई और क्षमा प्रार्थना भी की ...मेरी दूरी और मजबूरी दोनों को ध्यान में रखते हुए मुझे छूट दे दी गयी.... चंद दिनों में वापस गाज़ियाबाद आ गया ....घर से मेरे बड़े भैया अपनी इंडिका से लखनऊ के लिए निकले थे ... कुछ समय बाद फोन आया कि दोपहर की धूप
में ए सी चला कर सफर करते समय उन्हें झपकी आ गयी और चलते हुए ट्रक में पीछे से टक्कर मार दी है ... शुक्र है कि गाड़ी के नुक्सान के अलावा कोई  शारीरिक क्षति नहीं हुई क्योकि ट्रक आगे को जा रहा था .. . अफ़सोस करते हुए हम ट्रेन पर बैठे और वापस आ गए .. अब आप सोचेंगे खा म खा इत्ती कहानी बताई इस से क्या फायदा ... टेम खराब किया ... तो इस कहानी से सीख ये मिलती है कि
१- ब्लॉग से बिना बताए कुछ दिन के लिए खिसक लेने में कोई हर्ज नहीं
२- ज्यादा लंबा सफर अगर कार से करना हो तो प्रोफेशनल ड्राइवर को साथ ले
लें या दो लोग चलाने वाले होँ
३ -सफर रात का अच्छा होता है लेकिन करीब दो बजे से सुबह तीन बजे के बीच
एक बार नींद ज़बरदस्त आती है ... ऐसे में कहीं रुक कर झपकी ले लेना ठीक
होता है
४ -अगर ट्रक में टक्कर मारनी हो तो पीछे से मारें और चलती ट्रक में ही ...
५ -लंबे सफर के लिए कार का चुनाव विशेष परिस्थितियों में ही करें
६ -किसी शहर में जाएँ तो कितनी भी व्यस्तता हो ... ब्लॉगर खोजें और
मेहमान नवाजी का लुत्फ़ ज़रूर उठायें ...(वरना वापस आ कर झूठ मूठ का बहाना बनाना पड़ेगा)
७ -गरमी के मौसम में प्रतापगढ़ जैसे हिल (हिला देने वाले) स्टेशन पर जाने से बचें ..

बुधवार, 5 मई 2010

लेकिन मैंने हार न मानी .... (पदम सिंह)



राहें कठिन अजानी

संघर्षो की अकथ कहानी

लेकिन मैंने हार न मानी

आशाओं के व्योम अनंतिम

स्वप्नों का ढह जाना दिन दिन

संबंधों के ताने बाने

नातों का अपनापा पल छिन

क्रूर थपेड़े संघर्षों के

दुर्दिन की मनमानी,

लेकिन मैंने हार न मानी

दूर क्षितिज तक अनगिन राहें

अनबूझी सी फैली फैली

लक्ष्य कुहासे जैसा धूमिल

सभी दिशाएँ मैली मैली

कभी समय से टक्कर ली तो

कभी भाग्य से ठानी

लेकिन मैंने हार न मानी

लिए तकाज़े नए नए नित

समय खड़ा था सांझ सकारे

दुनिया के, मनके, भावों के

किसके किसके क़र्ज़ उतारे

बिखरा बिखरा बचपन देखा

टूटी हुई जवानी .....

लेकिन मैंने हार न मानी


कुछ भावों के अश्रु निचोड़े

मनुहारों के धागे जोड़े

टूटे छंद बंद रिश्तों के

जोड़े कुछ तोड़े कुछ छोड़े

निश-दिन के ताने बाने में

बुनती गई कहानी

लेकिन मैंने हार न मानी

यार मिले तो यारी कर ली

दुःख की साझेदारी कर ली

ये न हुआ पर गद्दारों से

मौके पर गद्दारी कर ली

औरों को माफ़ी दे दी

पर अपनी गलती मानी

मैंने तम से हार न मानी

आँखें नम थी पर मुस्काए

रुंधे गले से गीत सुनाये

शब्दों की माला पहनाई

रस छंदों के दीप जलाए

प्रभु को हँस कर किये समर्पित

नयनों निर्झर पानी

लेकिन मैंने हार न मानी

Posted via email from हरफनमौला

सोमवार, 3 मई 2010

हम हमेशा को एक हो जाएँ

एक पुरानी रचना दे रहा हूँ ... शुरूआती दौर की रचना है .... पता नहीं कैसी लगे आपको ....

चलो एक दूसरे में खो जाएँ
हम हमेशा को एक हो जाएँ

भटकती उम्र थक गयी होगी
नज़र पे धुंध पट गयी होगी
मन की दीवार से सुकून जड़ी
कोई तस्वीर हट गयी होगी
आओ अब परम शान्ति अपनाएँ
हम हमेशा को एक हो जाएँ

पहाड़ से उरोज धरती के
उगे हैं ज्यूँ पलाश परती के
बसे हैं सूर्य की निगाहों में
कसे है आसमान बाहों में
आओ हम मस्त पवन हो जाएँ
सारी दुनिया में प्रेम छितारायें

कई बादल झुके हैं घाटी में
शिशु सा लोट रहे माटी में
लगा है काजल सा अंधियारा
शाम की शर्मीली आँखों में
एक स्वर एक तान हो जाएँ
साथ मिल झूम झूम कर गायें
हम हमेशा को एक हो जाएँ


Posted via email from हरफनमौला