शनिवार, 19 मार्च 2011

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

जीवन अकथ कहानी

बिधना बड़ी सयानी रे
जीवन अकथ कहानी रे

तृषा भटकती पर्वत पर्वत
समुंद समाया पानी रे

दिन निकला दोपहर चढी
फिर आयी शाम सुहानी रे
चौखट पर बैठा मैदेखूं
दुनिया आनी जानी रे

रूप नगर की गलियां छाने
यौवन की नादानी रे
अपना अंतस कभी न झांके
मरुथल ढूंढें पानी रे

जो डूबा वो पार हुआ
डूबा जो रहा किनारे पे
प्रीत प्यार की दुनिया की
ये कैसी अजब कहानी रे

मै सुख चाहूँ तुमसे प्रीतम
तुम सुख मुझसे
दोनों रीते दोनों प्यासे
आशा बड़ी दीवानी रे



तुम बदले संबोधन बदले
बदले रूप जवानी रे
मन में लेकिन प्यास वाही
नयनों में निर्झर पानी रे


कविता अर्चना चावजी जी की मधुर आवाज़ मे -

गुरुवार, 10 मार्च 2011

पान और ईमान... दोनों फेरते रहिए

एक प्रसिद्ध कहानी है ...

एक साधु नदी मे स्नान कर रहा था, उसने देखा एक बिच्छू पानी मे डूब रहा था और जीवन के लिए संघर्ष कर रहा था। साधु ने उसे अपनी हथेली पर उठा कर बाहर निकालना चाहा...लेकिन बिच्छू ने साधु के हाथ मे डंक मारा, जिससे साधु का हाथ हिल गया और बिच्छू फिर पानी मे गिर गया... साधु बार बार उसे बचाने का प्रयत्न करता रहा और जैसे ही साधु हथेली पर बिच्छू को उठाता बिच्छू डंक मारता...लेकिन अंततः साधु ने बिच्छू को बचा लिया.... घाट पर खड़े लोग इस घटना को देख रहे थे... किसी ने पूछा... बिच्छू आपको बार बार डंक मार रहा था फिर भी आप उसे बचाने के लिए तत्पर थे... ऐसा क्यों...

साधु मुस्कराया और बोला... बिच्छू अपना धर्म निभा रहा था... और मै अपना... वो अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता तो एक साधु अपना स्वभाव क्यों छोड़े... फर्क इतना है कि उसे नहीं पता कि उसे क्या करना चाहिए... जब कि मुझे पता है मुझे क्या करना चाहिए...

images (1)दूसरी प्रसिद्ध कहानी है... दो साधु जंगल मे एकांतवास कर रहे थे ... उन्होंने देखा कि कुछ शिकारी एक साही(एक जानवर) का पीछा कर रहे थे... साही ने आत्म रक्षार्थ अपने काँटे फुला रखे थे जिससे शिकारियों के मारने का कोई असर उसपर नहीं हो रहा था... साधु दूर से यह तमाशा देख रहे थे... साथी साधु ने दूसरे से कहा... ये साही तो मर नहीं रहा है... शिकारी कितनी देर से परेशान हैं...इन्हें कोई उपाय बताइये... इस पर साधु बोला..... "साही मरे मूड (सिर) के मारे, लेकिन हम संतों को क्या पड़ी".... यह बात इतने ज़ोर से बोली गयी थी, कि बात शिकारियों तक के कानों मे पड़ जाये... शिकारियों ने झट उसपर अमल किया और सिर पर चोट करते ही साही मर गया....

किसी का चरित्र उसके व्यवहार पर कहीं न कहीं छाप अवश्य छोडता है। किसी परिस्थिति विशेष मे कोई कैसा व्यवहार करता है, किसी अवसर विशेष पर किसी की क्या प्रतिक्रिया होती है, यही उसके चरित्र की वास्तविक तस्वीर होती है। इसको जाँचने का एक यंत्र है ज़मीर... किसी का ज़मीर कब जागता है और कब सोता रह जाता है यही उसके चरित्र की मूल पहचान होती है। किसी की मूल वृत्ति उसके व्यवहार को कहीं न कहीं प्रभावित अवश्य करती है।

परोपदेशकुशलाः दृश्यन्ते बहवो जनाः ।
स्वभावमतिवर्तन्तः सहस्रेषु अपि दुर्लभाः ॥

दूसरों को उपदेश करने में अनेक लोग कुशल होते हैं, पर उसके मुताबिक व्यवहार करनेवाले हज़ारों में एकाध भी दुर्लभ होता है

दूसरों को अच्छी अच्छी बातें बताना... अच्छी सलाहें देने का कार्य सब करते हैं ... लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो लाभ का अवसर मिलते ही थोड़ी देर के लिए अपने ज़मीर को थपकी दे कर(या अफीम पिला कर) सुला देते हैं... और ताज्जुब तो यह कि कई लोग इस घटना को अनजाने(बनकर) ही करते हैं... अक्सर यह बेटे का दहेज लेने के अवसर पर स्पष्ट दिखाई देता है....

पान और ईमान को ठीक रखने के लिए फेरते रहना जरूरी होता है... अपने ईमान, अपने धर्म, अपने चरित्र की परीक्षा अवसर पड़ने पर जरूर की जानी चाहिए....

.......... पद्म सिंह padm singh

रविवार, 6 मार्च 2011

गज़ल

13-myfavoritegame

एक अरसा हो गया है,  बेधड़क  सोता नहीं

दिल  भरा बैठा हुआ है टूट कर रोता नहीं 

किसे कहते हाले दिल किसको सुनाते दास्ताँ

कफ़स का पहलू कोई दीवार सा होता नहीं

दूर हो कर भी मरासिम इस तरह ज़िंदा रहे

मै इधर जागूँ अगर तो वो उधर सोता नहीं

इश्क हो तो खुद-ब-खुद  हस्सास लगती है फिजाँ

कोई   दरिया,  पेड़,  बादल   चाँदनी बोता नहीं

तुम हमें चाहो न चाहो हम तुम्हारे हैं सदा 

ये कोई सौदा नहीं है कोई समझौता नहीं

 

...... पद्म सिंह =Padm singh 9716973262

शनिवार, 5 मार्च 2011

एक था राम सरन

P291110_17.00

सुबह देखने वालों की भीड़ की आँखों मे सहानुभूति, तिरस्कार, और जुगुप्सा जैसे कई भाव मिलजुल कर एक साथ थे... वो घण्टा लिए लेटा था ...

छैल बिहारी पाँड़े रियासत के दौर मे खूंखार दारोगा हुआ करते थे ...  कहते हैं उनके जैसा लठैत इलाके मे नहीं था। सिर पर गमछा लपेट कर जिस समय लाठी ले कर दौड़ पड़ते पचासों की भीड़ काई की तरह छितरा जाती...चारों तरफ से चलते ईंटे-अद्धे अपनी लाठी पर रोक लेना हुनर मे शामिल था... इलाके मे छैल बिहारी से भिड़ने की हिम्मत किसी मे नहीं थी... अपनी लाठी के दम पर किसी का खेत कटवा लेना... जमीन हड़प लेना... और फर्जी मुकदमे मे फंसा कर बर्बाद कर देना बाएँ हाथ का खेल था...

कहते हैं एक बार पूरे गाँव को फ़ौजदारी मे फंसा कर साल भर के लिए जेल भेज दिया था। बेईमानी, दबंगई और अपनी लट्ठ के बल पर बहुत कुछ बनाया कमाया... समय हर मर्ज की दवा होती है। एक समय बीमारी ने ऐसा जकड़ा कि फिर उठना नहीं हुआ... खेत, खलिहान, और ऊल जलूल कमाए हुए रूपये पैसे घर द्वार सब छोड़ कर सिधार गए।

इन्हीं छैल बिहारी पाँड़े के दो लड़के अवधेश और राम सरन उस समय चढ़ती उम्र के जवान थे... उन्हें भी उद्दंडता अपने पिता से विरासत मे मिली थी... आए दिन गाँव वालों से, अड़ोसी पड़ोसी  से झगड़े होते थे, अब परिवार और पट्टीदारों से  से झगड़े होने लगे... जरा जरा सी बात पर  सुबह शाम फरसे, लाठियां और बल्लम(भाले) निकलने लगी।

राम सरन का विवाह नहीं हुआ... छोटे भाई के बच्चों को अपने साथ ले कर घूमता फिरता... दोनों के पास खेती बारी के अलावा कमाई का कोई साधन नहीं था ... लेकिन शानो शौकत से रहने की आदत ने धीरे धीरे इस हद तक ला दिया कि  खेत बेच कर खर्च चलाने लगे... लेकिन दिखावा वही रहा... राम सरन ने पुलिस की दलाली शुरू कर दी... दो पक्षों मे लड़ाई करवाना और फिर FIR और समझौते के नाम पर दोनों से धन उगाही करना उसका पेशा बन गया... कोई उसके कहे के अनुसार न चलता तो उसको अजीबोगरीब सज़ा देता ..... पहले तो उसके घर चोरी करवा देता... या फिर कोई नुकसान करवा देता... खड़ी फसल मे बेर की कंटीली  झाड़ियाँ लुंगी से बाँध कर रात भर घसीटता और खड़ी फसल को चौपट कर देता... किसी के खेत की आलू रातों-रात खोद लेना... आम की बाग से बोरियों आम तोड़ लेना उसका रोज़ का काम बन गया...

खानाबदोश की तरह घूमते रहने वाले राम सरन का चेहरा और पहनावा भी उसकी सोच और आदतों की तरह विद्रूप होता गया .... कुर्ता और लुंगी पहन कर शकुनि जैसी चाल के साथ एक पसली के राम सरन की  एक आँख छोटी और गड्ढे के अंदर कोटर मे  घुस गयी लगती  थी,.... एक आँख की भवें ऊंची नीची होती तो राम सरन को और भी रहस्यमय लगता था ...

जीवट इतना,कि रात रात भर वेताल की तरह गाँव गाँव घूमता... सर्दियों की कई कई रातें   किसी के गन्ने के खेत के बीचों बीच जगह बना कर गन्ना चूसते हुए बिता देता... खेतों मे खड़ी फसल की बालियाँ रात मे लुंगी मे झाड़ लेना मामूली बात थी...

गावों मे आज भी ब्राह्मण के घर पैदा हो जाना भी उसकी योग्यता का प्रमाण-पत्र होता है।.... चाल चलन कैसा भी हो लोग पैलगी करना नहीं भूलते... और फिर एक कहावत है कि "नंगों से खुदा भी हारा है" इस कारण लोग डर से राम सरन से प्रत्यक्ष रूप से खुल कर कुछ कहते हुए डरते थे...

अपनी इन्हीं हरकतों से धीरे धीरे ज़्यादातर खेत बिक गए या गिरवी चढ़ गए.... चोरी चकारी करने और दूसरों को परेशान करने की आदत नहीं गयी... पता नहीं किस सोच के कारण अपने बचे खुचे खेतों के कागजात के बदले नया ट्रैक्टर भी खरीदा गया लेकिन किश्तें न जाने के कारण खेत और ट्रैक्टर दोनों चले गए...

इलाके के लोग भी तंग आ चुके थे... आस पास के कई गावों मे उसका आतंक पसरा हुआ था...बिना कारण भी किसी का नुकसान कर देना उसका शगल था ... कहते हैं सबको अपने किए की सज़ा यहीं मिलती है ...  मई जून  की कोई रात थी वो ... यादवों के गाँव मे पीपल के पेड़ पर बीस किलो का पीतल का घंटा लटका हुआ था... लगभग एक से डेढ़ के बीच का समय रहा होगा... लोग एक नींद पूरी कर चुके होंगे... एक साया पीपल के थान से होकर  अंधेरे की आड़ लेते हुए पेड़ पर चढ़ा... पीतल का घंटा भारी होने के बावजूद उसे खोला और पेड़ से नीचे उतार लिया ...

... लुंगी मे बांधते हुए अचानक घण्टा टन्न की आवाज़ के साथ बज गया... किसी को शक हो गया और एक आवाज़ पर गाँव मे जाग हो गयी और लोगों ने टार्च और लाठीयों के साथ इलाका घेरना शुरू कर दिया... इसके बावजूद भी चोरी करने वाले ने घण्टा नहीं छोड़ा और दोनों पैर के बीच मे घण्टा दबाकर एक चौड़ी नाली मे लेट गया .... मगर हर अति का एक अंत होता है... उस दिन काल ने अपना जाल बिछा रखा था....

सुबह पता चला राम सरन की लाश पैरों मे घण्टा दबाये नाली मे लेटी थी...

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

संत्रास

कब तक ये संत्रास रहेगा
कब तक ये वातास बहेगा

धूप न मिल पाई बिरवे को
निर्मम कारा के गह्वर में
प्यास न मिट पाई मरुथल की
धूल धुंध फैली अन्तर में
सरसिज की आहों में कब
पतझड़ का आभास रहेगा

आंखों को चुभने लगता है
पलकों का सुकुमार बिछौना
मन की तृषा भटकती ऐसे
जैसे आकुल हो मृग छौना
आख़िर कब तक इन राहों को
मंजिल का विश्वास रहेगा

विधि के हांथों जीवन की भी
डोर छोर पुरजोर बंधी है
जहाँ राह ले जाए रही के
सपनों की डोर बंधी है
रजा राम संग सीता को
मिलता ही वनवास रहेगा
कबतक ये ...........

छोटा सा बडप्पन

जब भी उधर से गुजरता हूँ , नज़रें ढूंढती रह जाती हैं उसे
लेकिन फिर कभी नहीं दिखा मुझे वहां पर
‎प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश  शहर का  रेलवे स्टेशन..February ‎24, ‎2006 दोपहर के बाद का समय था...हलकी धूप
थी. गुलाबी ठण्ड में थोड़ी धूप अच्छी भी लगती है और ज्यादा धूम गरम भी लगती है ... स्टेशन पर बैठा इंतज़ार कर रहा था और ट्रेन लगभग एक घंटे बाद आने वाली थी ..... बेंच पर बैठे बैठे जाने क्या सोच रहा था ...
चाय ..... चाए .....की आवाजें या फेरी वालों की आवाजें रह रह कर मेरी तन्द्रा तोड़ देतीं ........वहीँ स्टेशन पर पड़े दानों के पीछे चार पांच कौए आपस में झगड़ने का उपक्रम कर रहे थे ...जिनके खेल को मै बड़ी तन्मयता से बड़ी देर से देख रहा था ... इसी बीच मुझे किसी के गाने की आवाज़ ने चौकाया ..... कोई गा रहा था दूर प्लेट फार्म पर ... आवाज़ तो अच्छी नहीं थी पर जो कुछ वो गा रहा था उसके शब्द मुझे उस तक खीच ले गए ...
कद लगभग ढाई से तीन फुट के बीच ही था उसका ... पर उम्र लगभग ३० के आस पास रही होगी
उत्सुकता वश बहुत से लोग उसके करीब आ गए और गाना सुनते रहे ,....
किसी ने एक दो रूपया दिया भी उसे .... पर उसका गाने का ढंग और उसके गीतों  का चयन मुझे छू  रहा था 
कुछ देर बाद जब थोड़ी फुर्सत सी हुई तो मैंने उत्सुकता वश उसे अपने पास बुलाया और बात करने लगा..... 
बताया कि मेरा घर यही प्रतापगढ़ के पास चिलबिला स्टेशन के पास ही है
माँ बाप का इकलौता हूँ ....बाबा रहे नहीं ..... अम्मा हैं
अब मेरी हालत तो देख ही रहे हो बाबू
और कोई काम तो कर नहीं सकता सिवाय इस के,.......
मुझे गाने का बहुत शौक था तो गाने लगा हूँ बचपन से ही
..........मैंने कहा आज कल तो विकलांगों के लिए सरकार बहुत कुछ कर रही है
.......... सरकार क्या करेगी ज्यादा से ज्यादा एक साइकिल देगी या फिर रेल का किराया कम कर देगी और कुछ कर नहीं सकता पढ़ा लिखा भी नहीं हूँ
.................................................
एक बार सर्कस वाले आये थे कहने लगे चलो हमारे साथ हम तुमको पैसे भी देंगे और देश बिदेस घूमना हमारे साथ
....... फिर?
पर साहब मेरी माँ का क्या होगा यहाँ पर ... बाबा(पिता) रहे नहीं.......
अम्मा बीमार रहती हैं ..... दमे की मरीज़ हैं तो .......
अब उनकी देख रेख मै नहीं करूँगा तो कौन करेगा .....कहती हैं तू चला जा सर्कस में ..... पर बाबू जी ....... अम्मा को छोड़ कर जाने का दिल नहीं करता ....उसकी बातों में अम्मा के लिए प्रढ़ अपनापा और संवेदना झलक रही थी
बहुत मयाती हैं हमका अम्मा
और फिर औलाद किस दिन के लिए होती हैं........
जौ हमहीं चले जायेंगे छोड़ कर ....... तो और कौन साथ देगा ?
आज देर होई गई आवे मा....... अम्मा की तबियत ज्यादा खराब होई जात है  सर्दी मा..!!
आज तो हमरो तबियत कुछ ढीली है .......मगर का करी .... दवाई ले जाय का है ...... यही बरे आवे का पड़ा( इसी लिए आना पडा)
.....दिन भर में कितना ?
अरे दिन भर में कितना का ....... कभी 20-30 रुपिया तो कभी भीड़ भई तो 70-80 रुपिया भी होई जात है दिन भर मा .........
पर उसके स्वभाव में लाचारी नहीं दिखी मुझे ....... एक चमक थी आत्म विश्वास की ......
मैंने ज्यादा पूछ ताछ करना ठीक नहीं समझा ......
मैंने कहा मेरे लिए एक दो गाने गाओगे?
बोला हाँ साहब क्यों नहीं
फिर अपने सोनी के मोबाइल फोन से उसका गाना रिकार्ड किया ......
जो कुछ हो सका दिया भी .....
पर अपनी माँ के लिए उस के भाव और बातें आज भी याद आती हैं
जब भी उधर से गुजरता हूँ , नज़रें ढूंढती रह जाती हैं उसे
लेकिन फिर कभी नहीं दिखा मुझे वहां पर
कभी कभी लगता है हम पढ़ लिख कर ...... सर्विस, व्यापार के चक्कर में अपनों से और अपने घर से इतनी दूर हो गए हैं ...
पैसे, उपहार ... चाहे जो भेज दें पर अपने बड़ों के पैर छूने की अहक इस "बनावटी बडप्पन" में कहीं घुट जाती है...

मै ये भी आपको बताना चाहूँगा कि .... मैंने उस से ये भी कहा था कि मै तुम्हरी बात अगर हो सका तो कहीं आगे ले जाऊँगा और तुम्हरी गाने की कला का कोई कद्र दान ढूँढूँगा ...... पर मेरे पास कोई ऐसा माध्यम नहीं था ...इस ब्लॉग के माध्यम से आज फिर सक्षम लोगों से गुज़ारिश करना चाहूँगा कि यदि आप कुछ कर सकें तो मै दोबारा उसे ढूँढने की कोशिश करूँगा ...
उसने जो गाया मै उस को लिख भी देता हूँ
हो सकता है कोई इस पोडकास्ट को सुन न पाए --

१- पढ़ने को मेरा उसने खत पढ़ तो लिया होगा
हर लफ्ज़ मगर कांटा बन बन के चुभा होगा
कसिद् ने खुशामद से क्या क्या न कहा होगा
शायद किसी भंवरे ने मुह चूम लिया होगा
शबनम के टपकने से क्या कोई कली खिलती
बेटा किसी बेवा का जब दूल्हा बना होगा
शादी में उस माँ का आंसू न रुका होगा
धनवान कोई होता तो धूम मची होती
निर्धन का जनाज़ा भी चुपके से उठा होगा
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२-
सर झुकते नहीं देखा किसी तूफ़ान के आगे
जो प्रेमी प्रेम करते हैं श्री भगवान के आगे
लगी बाजार माया की इसी का नाम है दुनिया
यहाँ ईमान बिक जाता फकत एक पान के खाते
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