पाती के संग बहते आंसू
पहुचे तेरे पाँव में
परदेसी परदेश छोड़ कर
वापस आ जा गांव में
दिल में लावा उबल रहा है
प्यासे रेगिस्तान है
कुछ बिरहा की आग सताए
कुछ मेरे अरमान है
मुझे झुलसते छोड़ बेदर्दी
जा बैठे तुम छाँव में
परदेसी परदेश छोड़ कर
वापस आ जा गांव में
छोड़ा क्यों साथ मेरा मांझी
दुःख के सागर की बाँहों में
तुम उड़े प्रीति का पिंजरा ले
मै बंधी पड़ी थी आहों में
टूट गया पतवार धैर्य का
छेद हो गए नाव में
परदेसी परदेश छोड़ कर
वापस आ जा गांव में
कुछ घर से कुछ बाज़ारों से
कुछ गलियों से चौबारों से
भेडिये झांकते है अक्सर
इज्ज़त के ठेकेदारों से
कुछ से बच कर बच पाई हूँ
कुछ छिपे खड़े है दांव में
परदेसी परदेश छोड़ कर
वापस आ जा गाँव में
सोमवार, 4 जनवरी 2010
पाती(पुनर्प्रकाशन)
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कुछ कहिये न ..