22 अग 2010
लिखते लिखते सोच रहा था ये क्या लिख रहा हूँ मै ? गज़ल का शिल्प, हास्य का रस, और व्यंग्य की तासीर का मिलाजुला स्वरुप देख कर मन मे आया कि इसे क्या कहूँ .. और फिर शायद एक नयी विधा या शब्द का जन्म हुआ ऐसा लगता है….
व्यंग्य+हास्य+गज़ल=(व्यंहज़ल)
तो व्यंहज़ल अर्ज़ है……..हल्के फुल्के मन से मुस्कुराते हुए स्वीकारिये …
अंतिम शेर संजीदा एहसासों की शिद्दत से अभिव्यक्ति है…
रोना हज़ार रोते रहे देश काल के
फेंके न आस्तीं के संपोले निकाल के
चारों तरफ़ बिछी है सियासत की गंदगी
यारों कदम बढ़ाना जरा देख भाल के
भेजा वही है, सोच वही, आदतें वही
बदले हैं कलर लल्ला ने सिर्फ बाल के
मिलते ही सुकन्या ने हाइ गाइ! यूँ कहा
आसार नज़र आने लगे चाल ढाल के
लहसुन पेयाज़ मसाले का त्याग देखिये
साहब ने मछली खाई तो वो भी उबाल के
कुछ भी न दिया हो विकास ने यहाँ मगर
झुरऊ मज़े लेते हैं सरे-शाम मॉल के
इस दौर फर्ज-ओ-फन की खैर बात क्या करें
ईमान खरीदे गए सिक्के उछाल के
Posted via email from हरफनमौला
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