शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

चप्पल चोरी बनाम दरोगा जी ....(पद्‌म सिंह)


19-04-2010 की सुबह... नौचंदी एक्सप्रेस ट्रेन धड़ धड़ कर चली जा रही थी .... लगभग पांच छह के आसपास का वक्त था... ट्रेन की बर्थ पर लेटे लेटे लेट होती ट्रेन के बारे में सोच रहा था ... कभी कभी किसी के मोबाइल की घंटी मेरी तन्द्रा तोड़ देती ... कुछ लोग हाथों में ब्रश या तौलिया लिए हुए बाथरूम की तरफ आवाजाही कर रहे थे .... इतने में मैंने महसूस किया कि पड़ोस की सीट के एक सज्जन पूरी बोगी में इधर उधर घूमते दिख रहे थे, कभी कभी सिजदे की अवस्था में आ जाते तो कभी झुके झुके ही इधर उधर सब की सीटों के नीचे झांकते घूम रहे थे ... साथ ही कुछ बडबडाते भी जा रहे थे ... ज्यादातर लोग सो रहे थे लेकिन उनकी इस हरकत पर कुछ लोग उठ भी गए ... कुछ
ने उत्सुकता वश पूछा भी.....
क्या हुआ भाई साहब ?
साले चोर हैं.... वर्दी के नाम पर कलंक हैं
साला शकल से ही चोर लग रहा था
मेरे भी कान खड़े हो गए
.... क्या हो गया भाई साहब ? उत्सुक्ताश मैंने भी पूछ ही लिया .. तो मामला समझ में आया........रात ये महोदय जब हापुड में अपनी सीट पर आये तो उस पर डबल स्टार वाले एक दरोगा जी उनकी सीट पर बैठे हुए थे... उनको देखते ही अपनी वाणी को अधिकाराना करते हुए बोले,
४९ नम्बर, लोअर बर्थ..... ये तो मेरी सीट है,... आप यहाँ कैसे? आप लोग अपनी सीट पर जाइए प्लीज़...
इंस्पेक्टर जी उनकी इस बात पर अंदर से कुछ सुलगे,
बोले तुम्हारी सीट है तो बैठ जाओ...
थोड़ी देर में उतरना ही है हमे तो ..
अरे नहीं आप आगे देख लो मुझे सोना है...
आदमी रिज़र्वेशन इसी लिए करवाता है ....
इंस्पेक्टर जी अपना गुस्सा दबाते हुए सामने की खाली सीट पर बैठ गए. भाई साहब थोड़ी देर बैठते भी लेकिन कह चुके थे कि सोना है ... सो दोनों चप्पल उतारी और सीट के नीचे खिसका दी .... अटैची से चादर निकाली और सिराहने रख कर अटैची भी सीट के नीचे खिसका दी ... और लेट गए फिर इंस्पेक्टर जी से थोड़ा उपेक्षित स्वर धारण करते हुए पूछ बैठे ..
कहाँ तक जाओगे ?
इंस्पेक्टर जी का अहं चोट खाए हुए सांप जैसा पहले ही हो रहा था, बिफर गए और सीधे सीधे हमला बोल दिया तुझसे क्या मतलब? बड़ा लाटसाहब बन रहा है तू? वर्दी में हूँ तो बेवकूफ समझ रहा है? चुप चाप पड़ा रह वरना एक मिनट लगते हैं ठीक करने में... भाई साहब कुलबुलाए बहुत लेकिन इंस्पेक्टर के तेवर के आगे कुछ बोल न सके और तिलमिला कर रह गए... मामला वहीँ थम गया .... लोग सो गए .... इंस्पेक्टर और उनके साथ दो सिपाही रात में कहाँ उतर गए किसी ने ध्यान नहीं दिया था.
सुबह हुई तो पता चला कि भाई साहब की एक चप्पल गायब थी.... नई चप्पल... लेदर की चमकती हुई ...एक चप्पल को लिए भाई साहब बैठे थे ... चेहरे पर मातम जैसा माहौल था ... उनकी बातों और चेहरे के भाव से यही लग रहा था कि उन्हें असीम वेदना और कष्ट हो रहा था चप्पल के खो जाने से... बिन जल मछली की तरह तड़प रहे थे कई बार पूरी बोगी छान मारी थी .... कहीं कोई सुराग नहीं ... आस पास के लोग भी उठ कर बैठ गए... -----किसी ने कहा पैर से लग कर इधर उधर हो गयी होगी,
तो बोले अरे भाई तीन चार बार पूरी बोगी छान मारी है कहीं नहीं दिखी
-----किसी ने कहा चोर ले गया होगा साले चोर भी बहुत हैं आजकल ट्रेनों में
लेकिन चोर ले जाता तो दोनों ही ले जाता..... एक चप्पल का क्या करेगा ?
और धीरे धीरे लोग बात चप्पल की समस्या से रेलवे की सुरक्षा व्यवस्था, लालू और ममता की रेल व्यवस्था की तुलना करते हुए क़ानून व्यवस्था, और सरकार तक चली गयी....
अचानक चप्पल भाई ने अपने मन में बहुत देर से उमड़ घुमड़ कर रही बात सब के सामने रख ही दी....
अरे उसी का काम है
साले चोर तो होते ही हैं
वर्दी पहन कर फ्री सफर करते हैं
देश को लूट के डाल दिया है
ये उसी इंस्पेक्टर का काम है
मुझे तो लगता है कि उसी ने अपना कमीना पन दिखाया और एक चप्पल ट्रेन से बाहर फेक दी नहीं तो एक चप्पल का चोर क्या करता ...
साला देखने में ही चोर लग रहा था ..... देखा नहीं पुलिस में हो कर बड़े
बड़े बाल रखे हुए था
कहीं तो होती बोगी में होती तो ,.....
उनको अंदर से जितना दारुण दुःख और अफ़सोस हो रहा था वो उनकी बातों और चेहरे के भाव से स्पष्ट झलक रहा था लेकिन लोग उनकी बातों पर ध्यान कम दे रहे थे और राजनीति पर चर्चा ज्यादा कर रहे थे ... वो महोदय दरोगा जी को कोसते हुए बार बार कभी एक बची हुई चप्पल तो कभी खाली पैर को देखते हुए इन्स्पेक्टर को ही गालियाँ दिए जा रहे थे...जिसपर सब लोगों के साथ सामने बैठे एक सिपाही महोदय भी मौन साध कर स्वीकार रहे थे ... या हो सकता है कुढ़ भी रहे हो पर बोले कुछ नहीं... वो महोदय एक पैर में चमकती हुई चप्पल पहने मन ही मन डिप्रेशन में जाने को तैयार लग रहे थे ... कोई उनके कष्ट को देख एक सलाह दे बैठे ... बोले एक बार ट्रेन के दरवाज़े पर खड़े हुए अचानक पैर से फिसल कर मेरी चप्पल गिर गयी थी .... मैंने दूसरी चप्पल भी फेक दी थी ... क्योकि चप्पल तो मिलनी नहीं थी ... तो हो सकता है किसी और को ही मिल जाए इस लिए दूसरी चप्पल भी फेक दी ...

लोगों से उनका कष्ट देखा नहीं गया ... बोले आप खामखा टेंशन मत लो... फेको इसे भी........ बाहर चारबाग स्टेशन से निकलते ही पुराने बस अड्डा के बगल में छोटी सी मार्केट है वहीँ से दूसरी चप्पल मिल जायेगी... जो गया उसके बारे में सोचने से क्या फायदा ....
सर्व सम्मति से प्रस्ताव पारित हुआ और ... दूसरी चप्पल भी खिड़की से बाहर फेक दी गयी ...
ट्रेन दो घंटे लेट हो चुकी थी .... हर छोटे छोटे स्टेशन पर दस दस मिनट रुक रही थी ... सुबह के आठ बजने वाले थे... लोग धीरे धीरे चप्पल वाली बात से ध्यान हटाने लगे थे और ट्रेन की देरी को कोसने में लगे थे ...(यद्यपि चप्पल भाई अब भी अफ़सोस में बिना कुछ बोले खिडकी से बाहर देख रहे थे... दोनों पैर खाली हो चुके थे)
इतने में लखनऊ चारबाग स्टेशन का आउटर आ गया ट्रेन धीमी हो चली थी कुछ लोग चलती ट्रेन से ही कूद कर चल दिए थे (संभवतः टिकट न रही हो)... आउटर आते ही सब अपने सामान समेटने लगे ... कुछ अपने सामान ले कर गेट पर भी पहुँच चुके थे ... इतने में कुछ ऐसा दृश्य दिखा जिसने सब को अवाक् कर दिया इतनी देर सलाह देने वाले लोग इसे देखते ही जल्दी से जल्दी प्लेटफार्म पर धीमी हो चली ट्रेन से उतर जाने को उतावले होने लगे ......
हुआ ये कि जैसे ही चप्पल भाई ने अपनी ट्रोली वाली अटैची सीट के नीचे से बाहर खींची ... उसमे फंसी हुई एक चमकदार लेदर की नयी चप्पल सामने थी... हुआ ये था कि चप्पल उनकी अटैची की ट्रोली में फंसी थी, जब भी वो अटैची इधर उधर खिसका कर देखते चप्पल भी उसके साथ खिसक जाती और दिखती ही न थी ... लेकिन वो एक चप्पल अपने हाथों से बाहर फेक चुके थे ... ट्रेन रुक
गयी थी ... उनकी मनोदशा क्या थी ....इसे देखने के लिए कोई नहीं रुका ...

(मेरे मन में एक बार विचार आया कि कह दूँ.... भाई जल्दी से इसे भी फेक दो .... हो सकता है किसी को दोनों मिल जाय... लेकिन मैंने सामान और विचार दोनों को समेट कर उतर जाने में ही भलाई समझी)

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

मालो जर हो तो मुत्तहिद रहना, प्यार हो गर तो फिर बिखर जाना

एक बार गुरु नानक साहब किसी गाँव से गुजर रहे थे अपने शिष्यों और अनुगामियों के साथ, रात होने के कारण उसी गाँव में डेरा डाल दिया ... गाँव वालों ने उनका बहुत विरोध किया और गालियाँ दी ... सुबह जब गुरुनानक जी उस गाँव से चलने को हुए तो उनहोंने गाँव वालों से कहा कि तुम सब यहीं इकट्ठे रहो, संगठित रहो... और आगे बढ़ गए, कुछ आगे फिर किसी रात को  एक गाँव में रुके.... गांव वालों ने नानक जी और उनके शिष्यों की बहुत सेवा की... जितना उनकी सामर्थ्य थी उतना किया .... सुबह जब नानक साहब फिर सफर पर निकलने लगे तो गाँव वालों को बुला कर कहा ..... जाओ तुम लोग बिखर जाओ ... किसी शिष्य ने ये सब देखा सुना और उत्सुकतावश पूँछ बैठा ... कि आपने ऐसा क्यों किया ? जिस गाँव वालों ने आपका इतना अपमान किया उनको तो आपने इकट्ठे रहने का आशीर्वाद दिया ... और जिस गाँव वालों ने आपकी इतनी सेवा सूश्रुषा की उनके लिए  आपने कहा कि ये गाँव उजड जाए ... लोग बिखर जाएँ ..  ये बात समझ से परे है .... कृपया स्पष्ट कर के कृतार्थ  करें ... गुरु नानक देव हँसे और बोले ... वो इस लिए, कि बुरे लोगों का एक जगह रहना ही ठीक है ... जबकि अच्छे और प्यारे इंसानों का पूरी दुनिया में बिखर जाना श्रेयस्कर है ... जिससे दुनिया में प्रेम और करुणा का प्रकाश फ़ैल सके ....


आज हर अच्छाई के लिए यही पुकार है कि समाज में फैले और धनात्मक उत्कर्ष में अपना योगदान दें ... न्याय, सच्चाई और अच्छाई का आत्मकेंद्रित और निष्क्रिय  होना बुराई को बढ़ावा देने जैसा ही  है ---

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आज आपको फिर  एक गज़ल दे रहा हूँ .... यद्यपि मै गज़ल लिखता नहीं ... लेकिन कवि को किसी सीमा में भी नहीं बंधना चाहिए इस लिए प्रयोग के तौर पर चंद अशरार आपकी नज़र है ....गज़ल का अंतिम शेर ऊपर के प्रसंग से प्रभावित है ...


उनसे   बिछड़े  तो  आज ये जाना

कितना मुश्किल है दिल को समझाना

 

दिल की किस्मत है टूट कर मिलना

और फिर  टूट  कर   बिखर जाना


सर तो कहता था प्यार मत करना

दिल  ही पागल  था जो नहीं माना

 

मंजिलें  खुद   झुकी  हैं  सजदे में

जब  से  अपनी  खुदी को पहचाना

 

फिर  कोई  काम  निकल  आया है

उसने  फिर  आज   मुझे  पहचाना

 

मै  जो  कहता  हूँ  तुझे  पी  लूंगा 

और   हँसता  है   मुझपे   पैमाना

 

आज   भूखा  है   पडोसी    मेरा

आज   मंदिर  मुझे   नहीं   जाना

 

प्यार  के  बोल  मुफलिसी  के लिए

जैसे  तिनके  का   सहारा    पाना

 

रास्ते   तो   हजार   मिलते   हैं

बड़ा   मुश्किल   है हमसफर पाना

 

मालो  जर  हो  तो  मुत्तहिद रहना

प्यार हो गर, तो फिर  बिखर जाना

 

मुफलिसी=गरीबी

माल-ओ-जर = धन दौलत

मुत्तहिद= इकठ्ठा, संगठित

 

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गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

तुम्हारे जाने से पहले तक कुछ भी नहीं था चकित करने जैसा... एक नज्म (पदम सिंह)

तुम्हारे जाने से पहले तक
कुछ भी नहीं था
चकित करने जैसा
घिरा था धुंध सा
छलावा
मेरे अस्तित्व के गिर्द
जाले थे
मेरी नज़रों पर
पलकों के बिछोने पर
न था
खरोंच का भी अंदेशा
टूटना ही था शायद
सो टूटा
रिश्ता ही था
या एक अनगढ़
तृषा
मिटटी थी कच्ची
या सिर्फ उन्माद
सर्जक का...
कुछ तो टूटा
पर अन्दर से
कुछ नया निकला है
जैसे नए मौसम में
नई कोपलें
नयी राहें ...
नयी संभावनाएं
कच्ची मिटटी और...
अनंत आकाश...

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मंगलवार, 30 मार्च 2010

खयालों के परिंदे इस लिए आज़ाद रखता हूँ

जफा की धूप में अब्र-ए-वफ़ा की शाद रखता हूँ

इसी तरहा मोहोब्बत का चमन आबाद रखता हूँ

 

छुपा लेता हूँ मै अक्सर तुम्हारी याद के आंसू  

यही थाती बचा कर अब तुम्हारे बाद रखता हूँ

 

मै अपनी जिंदगी के और ही अंदाज़ रखता हूँ

अना को भूल जाता हूँ फ़ना को याद रखता हूँ

 

कभी चाहत की धरती पर गजल के बीज बोये थे

फसल शादाब रखने को दिले बर्बाद रखता हूँ

 

कि उनकी बज्म में हस्ती हमारी बनी रह जाए

कभी मै दाद रखता हूँ कभी इरशाद रखता हूँ

 

हमारे बीच की अनबन, सुलगती रह गयी ऐसे

कभी वो याद रखते हैं कभी मै याद रखता हूँ

 

कहाँ से कब नयी मंजिल का रस्ता खोज ले आये

खयालों के परिंदे इस लिए आज़ाद रखता हूँ

 

 

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शनिवार, 27 मार्च 2010

एक हज़ल (खतरनाक सी)

मित्रों आप लोगों को हमेशा लगता था कि इस ब्लॉग पर सीरियस और दार्शनिक
रचनाएं भरी रहती हैं
तो मैंने सोचा क्यों न आज कुछ नया प्रस्तुत किया जाय आपके लिए ....
आज आपके लिए एक हज़ल ले कर हाज़िर हूँ , हलके मन और गहरे दिल के साथ ध्यान से पढ़िए
और मज़े लीजिए

मिलन की खुशबुओं को आज भी खोने नहीं देते
वही गंजी है सालों से मगर धोने नहीं देते

हमारे घर के मच्छर भी सनम से कितना मिलते हैं
जो दिन भर भुनभुनाते हैं तो शब१ सोने नहीं देते

हवाएं धूप पानी बीज लेकर साथ फिरते हैं
मगर वो खेत वाले ही फसल बोने नहीं देते

अब उनसे हमारा झगड़ा मिटे भी तो भला कैसे
अमन की बात करते हैं मिलन होने नहीं देते

अब अपने दर्द का इज़हार भी कैसे करूँ यारों
वो थप्पड़ मारते भी हैं मगर रोने नहीं देते

न जाने कब गरीबी मुझे साबित करनी पड़ जाए
इसी खातिर तो राशन कार्ड हम खोने नहीं देते

ये पैसा मैल है हाथों का और हम हैं सफाईमंद
तभी रब हाथ मैला हमारा होने नहीं देते

बड़ी मेहनत से करते हैं तरक्की मुल्क की अपने
हुई औलाद दर्जन, मगर 'बस' होने नहीं देते

खसम तो आज हो बैठे हैं कुत्तों से कहीं बद्तर
बंधा रखते हैं थोड़ी हवा भी खाने नहीं देते

मोहोब्बत पाक है अपनी रिन्यू करते हैं रोज़ाना
अकेले ही किसी को खर्च हम ढोने नहीं देते

अजब दस्तूर है इस जहां में इन हुस्न वालों का
किसी को थाल मिलते हैं हमें दोने नहीं देते

हमारी उम्र में अक्सर जवानी कसमसाती है
वो जाना चाहती है और हम जाने नहीं देते


नहीं कर पाए साबित जल के परवाने वफा अपनी
'तवज्जो' शमा कहती है कि परवाने नहीं देते

(शब=रात)
(इज़हार=अभिव्यक्ति)

लीगल सूचना: इस पोस्ट पर के सभी चरित्र काल्पनिक हैं , अगर किसी को इससे
अपनी समानता मिले तो लेखक इसके लिए उत्तरदाई नहीं होगा ........हा हा हा

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शुक्रवार, 19 मार्च 2010

हे यायावर !

एक भटकन..... जो जन्म के इस पार से मृत्यु के  उस पार तक भी हमारा पीछा नहीं छोडती है ...
मन प्राण आत्मा इस भटकाव के जाल से निकल नहीं पाती है ...उसे भान भी नहीं होता अपनी पराधीनता का
आशाएं हैं कि हमें भटकने के लिए मजबूर करती हैं  और हम अपनी निजता से दूर एक अनजान खोज में भटकते हैं यायावर बन कर  ...
कहीं तो थिर मिले-

हे यायावर....!

खोजता है कुछ

भटकता है,

कि है संधान कोई

समय के आवर्त में

या खोजता है अर्थ कोई

क्यों व्यथित है पथिक

सांसें और अंतः प्राण तेरे

रुलाते है तुझे क्या परिवेश

जीवन के कथानक

पांव के व्रण

या कि तम के

घन घनेरे...


कल्पना संसार

नातों के भंवर से

मृत्यु के उस पार

आशाएं सबल है

स्वप्न का शृंगार कर

छद्म का परिवेश धर

लक्ष्य पाने की त्वरा में

प्राण का पंछी विकल है


क्षिप्त अभिलाषा

तृषा का करुण क्रंदन

क्षितिज से आगे

क्षितिज-नव का निबंधन

भर रहे अस्तित्व में

संवेग प्रतिपल

यान से बिछड़े हुए खग

दंभ तज

आ लौट घर चल


क्या कभी पैठा नहीं

उतरा नहीं

अन्तः अतल में

या कि वर्तुल वेग में आविष्ट

झंझावात का

वर्जन किया है ?

ठहर जा दो पल..

बुझा कर दग्ध आँखें

विचारों को मौन कर ले

भ्रंश हों सब मान्यताएं

और पूर्वाग्रहों का

कण कण बिखर ले

नाद अनहद सुन

ह्रदय आनंद से संतृप्त

सरिता प्रेम की अविरल बहे 

मन प्राण को स्वच्छंद कर

निर्भय अमिय का पान कर ले 

और निजता में अवस्थित

आत्म साक्षात्कार कर

बस मौन हो जा

मौन हो जा  

हे यायावर ......

 

{आज मै ब्लॉग जगत के दरबार में अपनी वो रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसे किसी प्रतिष्ठित साईट ने छापने लायक नहीं समझा, कृपया अपनी अमूल्य टिप्पणी अवश्य दें ताकि मुझे और बेहतर करने कि शक्ति मिले और मेरा मार्ग प्रशस्त हो }

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मंगलवार, 16 मार्च 2010

पतझड़ के बहाने

कई दिनों से कुछ लिखने का मन नहीं होता .... मन में वैराग्य सा है ,....
कोई हलचल नहीं होती .... पतझड़ का मौसम है एक तरफ जहां पुराने पत्र अपनी
आयु पूरी कर अधोमुख धाराशाई हैं वही नए किसलय नूतन सृजन का सन्देश दे रहे
हैं ... सोचता हूँ क्या सन्देश देना चाहती है सृष्टि हमें इस मौसम के
बहाने ... नव सृजन का .. या पुरा पतन का ... या इन दोनों का .... समय की
नियति का ...ऐसे में गीता का श्लोक अनायास ही सामने खिंच आता है
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय।
नवानि गृह्णाति नरोsपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि।
अन्यानि संयाति नवानि देही।।

आज इसी परिदृश्य में अपनी एक पुरानी रचना पुनः प्रस्तुत करना चाहता हूँ -

विधना बड़ी सयानी रे
जीवन अकथ कहानी रे
तृषा भटकती पर्वत पर्वत
समुंद समाया पानी रे……..

दिन निकला दोपहर चढ़ी
फिर आई शाम सुहानी रे
चौखट पर बैठा मै देखूं
दुनिया आनी जानी रे……..

रूप नगर की गलियाँ छाने
यौवन की नादानी रे
अपना अंतस कभी न झांके
मरुथल ढूंढें पानी रे……..

जो डूबा वो पार हुआ
डूबा जो रहा किनारे पे
प्रीत प्यार की दुनिया की ये
कैसी अजब कहानी रे……..

मै सुख चाहूँ तुम से प्रीतम
तुम सुख मुझसे चाहोगे
दोनों रीते दोनों प्यासे
आशा बड़ी दीवानी रे…….

तुम बदले संबोधन बदले
बदले रूप जवानी रे
मन में लेकिन प्यास वही
नयनों में निर्झर पानी रे……….

Posted via email from हरफनमौला