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रविवार, 5 दिसंबर 2010
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
तुम मुझे टीप देना सनम….टीपने तुमको आयेंगे हम
तुम मुझे टीप देना सनम
टीपने तुमको आयेंगे हम
ऐसे याराना चलता रहे
ब्लॉग की राह के हम कदम
एग्रीगेटर सजा कर थके
मेल सबको लगा कर पके
कोई झाँका नहीं इस तरफ
राह कोई कहाँ तक तके
हम भी चर्चा बना लें कोई
सारी मुश्किल समझ लो खतम
तुम मुझे टीप देना सनम
टीपने तुमको आयेंगे हम
कोई एसो सियेशन गढो
कभी टंकी पे जाओ चढ़ो
अपनी गलती को मानो नहीं
दोष औरों के माथे मढ़ो
माडरेशन लगा कर रखो
हम भी देखेंगे किसमे है दम
तुम मुझे टीप देना सनम
टीपने तुमको आयेंगे हम
कभी गूगल से फोटो चुरा
कोई कंटेंट मारो खरा
हेरा फेरी करो, चेप दो
कोई माने तो माने बुरा
ब्लॉग अपना है जो मन करो
कोई दिल में न रखना भरम
तुम मुझे टीप देना सनम
टीपने तुमको आयेंगे हम

टिप्पणी फिर भी मिलती नहीं
जब तलक टांग खींचो नहीं
भीड़ मजमे को मिलती नहीं
फूल से कुछ नहीं हो अगर
भीड़ में फोड़ दो आज बम

तुम मुझे टीप देना सनम
टीपने तुमको आयेंगे हम
(जस्ट खुराफात …:) )
………आपका पद्म
रविवार, 12 सितंबर 2010
ईद … जरूरत … रवायत … और पाइथागोरस प्रमेय
आज ईद भी है और गणेश चतुर्थी भी … कहीं कहीं हरतालिका तीज भी … इन सब के लिए पूरे देश को शुभकामनाएँ ….
कल सपत्नीक बाजार का रुख किया तो रास्ते में ही पता चल गया कि त्योहारों का मौसम आ गया है …. बाजारों में कपड़ों, चूड़ियों और शृंगार प्रसाधन की दुकानें ग्राहकों से पटी हैं … चूड़ी की दूकान पर जहाँ हिंदू औरतें तीज के लिए चूड़ियाँ खरीद रही थीं वहीँ मुस्लिम मोहतरमा लोग भी चूड़िया ले रहीं थीं … ये वाली नहीं थोड़ा मैचिंग में दिखाओ . सब कुछ घुला मिला सा लगा …. ये सब देख कर ऐसा लगता है कि इस देश में अनेक धर्म और जातियां कितना मिल जुल कर रहती हैं …यद्यपि कुछ समय से अपनी धार्मिक पहचान दिखाने की होड़ कुछ बढ़ी है ….फिर भी सामान्यतः तो रहन सहन और भाषा से अलग अलग पहचानना भी मुश्किल होता है ….ये सब देख कर धर्म और मजहब के नाम पर लड़ने मरने की बातें अविश्वसनीय लगती हैं …
सुबह मेरी पड़ोसन ज़न्नत बेगम जी जब ईद की सेवियां लेकर घर पर आईं तो मन सुखद अनुभूति से भर गया ….हमेशा हम ईद और दीपावली पर एक दुसरे से अपनी खुशियाँ और खाना पीना शेयर करना नहीं भूलते …
मेरे कुछ बचपन के मुस्लिम मित्र हैं … सगीर, अनीस जैसे दोस्तों के साथ तो बचपन से पढ़ा और खेला हूँ … ईद और होली दीवाली पर साथ मिले बैठे और खाया पिया… कभी भी कहीं से आपस में ऐसा लगा ही नहीं कि मै हिंदू हूँ या वो मुस्लिम… कई बार तो हम आपस में ऐसे मजाक करते जिसे कोई और सुने तो इसे धर्म या मज़हब का अपमान भी समझ सकता है … लेकिन दोस्ती की बातें हैं …. इतने सालों में कभी भी रवायत या किसी अन्य पूर्वाग्रह आपसी संबंधों के बीच कभी नहीं आये … हमारे बीच भाई जैसी घनिष्ठता और बेबाकी रही(और है भी)… सोचता हूँ वो ऐसी क्या वजह होती है जो इंसान को इंसानियत से अलग कर देती है … ये ज़िम्मेदारी इस युवा और पढ़े लिखे युवाओं पर जाती है कि भविष्य में रवायतों को मानवता के दायरे में कैसे सुरक्षित रखा जाए.,
दिल्ली में सन 1984 के दंगों में मेरे कुछ रिश्तेदार इस तरह की इंसानियत के जीते जागते सुबूत हैं जिन्होंने पूरे पूरे मोहल्ले सहित मिल कर बहुतों को अपने घर में छुपा कर … रात रात भर पहरा दे कर दंगाइयों से लोहा लिया और धार्मिक विद्वेष से ऊपर उठ कर मानवता की रक्षा की ,.. अगर हम इक्कीसवीं सदी के आधुनिक युग में मानवता की रक्षा नहीं कर पाए तो हमें बचाने ऊपर से भी कोई आने वाला नहीं है …
सीरियस बात खतम ….:)
अब मज़ेदार बात शुरू……
इस क्रम में दो होनहार दोस्तों(अतहर और अनिल) की सच्ची और रोचक दास्तान सुनाता हूँ…. जिसे सुना सुना कर दोनों घंटों लोट पोट हुए थे … ये दोनों ही मेरे पड़ोसी थे (दोनों अपने अपने जॉब में बिजी है आजकल)


“सभी को ईद और गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएँ”
आपका पद्म ……..बुधवार, 8 सितंबर 2010
जो हल निकाला तो सिफर निकले
by padmsingh in गजल, गज़ल.गजल, पद्म, पद्मसिंह, पद्मावलि Tags: इलज़ाम, गज़ल, धडकन, पद्म, पद्म सिंह रचनाएँ, सिफर, हल [Edit]
रात कब बीते कब सहर निकले
इसी सवाल में उमर निकले
तमाम उम्र धडकनों का हिसाब
जो हल निकाला तो सिफर निकले
बद्दुआ दुश्मनों को दूँ जब भी
रब करे सारी बेअसर निकले
हर किसी को रही अपनी ही तलाश
जहाँ गए जिधर जिधर निकले
हमीं काज़ी थे और गवाही भी
फिर भी इल्ज़ाम मेरे सर निकले
किसी कमज़र्फ की दौलत शोहरत
यूँ लगे चींटियों को पर निकले
उजले कपड़ों की जिल्द में अक्सर
अदब-ओ-तहजीब मुख्तसर निकले
….आपका पद्म ..06/09/2010
Posted via email from हरफनमौला
बुधवार, 1 सितंबर 2010
शह मिले या मात... देखी जायेगी
साल… दिन…शामें…लम्हे… जाने कितने ठहरावों की फेहरिस्त है हमारे माज़ी की डायरी मे…..कभी फुर्सत के पलों मे अचानक कोई सफहा दफअतन उलट गया तो अपनी जमा पूँजी मे से कुछ गिन्नियां तो कुछ कौडियाँ झाँकती दिखीं … जीवन के हर पल पर हम रुक कर अपनी मौजूदगी का खुद ही इतिहास बनाते रहने की कोशिश करते रहे … जाने कितने पड़ावों की खट्टी मीठी यादों को अपने एहसासों के गिर्द लपेटे दिन ब दिन भारी होते रहे …. हम अपने बीते पलों को अपनी पोटली मे लटकाए घुमते रहे … न चाहते हुए भी … खुशफहम यादों ने भले साथ छोड़ दिया हो … हर अनचाहे पलों की किर्ची गाहे बगाहे अपनी मौजूदगी जरूर दर्ज करवा जाती है …. और ठीक उसी समय जब कभी नहीं चाहा कि वो यहाँ हो… जन्मदिन, वार्षिकी और जाने क्या क्या मनाते रहे और खुश होते रह… किस बात की खुशी मनाते हैं हर पल… इसी बात की न ? … कि जो आने वाला कल है उसका क्या भरोसा … कम से कम हमारा माज़ी तो हमारी थाती है … इसीलिए तो हर पल को ठहर कर गौर से देख लेना चाहते हैं… जी लेना चाहते हैं … सामने का रास्ता धुंध से पटा है … अभी हैं अभी नहीं रहेंगे …. इसी लिए तो साल दर साल… लम्हे दर लम्हे …इतिहास बनने के लिए पल पल समेटते रहे ….रुकते रहे… ठहरते रहे …. लेकिन जो ठहरा नहीं कभी….. वो समय ही तो था ….
चंद अशआर आपकी नज़र कर रहा हूँ …. जीस्त की सौगात देखी जायेगी (जीस्त =जिंदगी)
शह मिले या मात देखी जायेगी
धूप है तो धूप से लड़ बावरे
रह गई बरसात, देखी जायेगी
एक जुगनू को जला कर, बुझा कर
तीरगी की ज़ात देखी जायेगी (तीरगी=अँधेरा)
मोहोब्बत की थाह पाने के लिए
जेब की औकात देखी जायेगी
बात कहने भर से बनती नहीं बात
बात मे कुछ बात देखी जायेगी
………आपका पद्म ०९/०१/२०१०
Posted via email from हरफनमौला
बुधवार, 25 अगस्त 2010
काव्य,वेलफेयर और बारिश की एक शाम …
23 अग 2010
तीन चार दिन पूर्व मेरे कवि मित्र सुमित प्रताप सिंह जी का ई-मेल मिला कि चौसठवें स्वतन्त्रता दिवस के उपलक्ष्य मे शोभना वेलफेयर सोसाइटी के तत्वाधान एक कवि सम्मलेन का आयोजन किया गया है जिसमे मुझे आमंत्रित किया गया है…नदीम जी से पूर्व कुछ अन्य उदीयमान रचनाकार अपना काव्यपाठ कर चुके थे जिन्हें न सुन पाने का खेद है जिनके नाम इस प्रकार हैं
१ – अनुराग अगम २ -जयदेव जोनवाल
देखता हूँ कैसा कैसा ख्वाब मे
तेरी खुशबू तेरा जलवा ख्वाब मे
तेरी आँखें तेरा चेहरा तेरे लब
ख्वाब ने भी ख्वाब देखा ख्वाब मे
……………………………………….
कंकड़ समेट कर कभी पत्थर समेट कर
हमने मकाँ बनाया है गौहर समेट कर
नाकामियों ने जब हमें जीने नहीं दिया
हमने भी रख दिया है मुकद्दर समेट कर
टुकड़ों मे बाँट देता हूँ तस्वीर आपकी
फिर उनको चूम लेता हूँ अक्सर समेट कर
——————————————-
गुलों को गुलची सितारों को खा गया सूरज
खैर साये की मियाँ सर पे आ गया सूरज
तमाम दुनिया की हस्ती पे छा गया सूरज
और औकात भी सब की दिखा गया सूरज
जैसे अहबाब के सीने से लिपटता है कोई
अब्र के सीने मे ऐसे समा गया सूरज
अब तो आ जाओ कि मै इंतज़ार करता हूँ
अब न शर्माओ कि कब का गया गया सूरज
गुरूर इसका भी ‘काविश’ खुदा ने तोड़ दिया
आओ कोहरे से वो देखो दबा दबा सूरज
इसके बाद नवोदित कवि श्री जितेन्द्र प्रीतम जी ने अपनी शिल्प और भाव से परिपक्व रचनाओं से बहुत प्रभावित किया -
पूरी हिम्मत के साथ बोलेंगे जो सही है वो बात बोलेंगे
आखिर हम भी कलम के बेटे हैं दिन को हम कैसे रात बोलेंगे
***
दिल को छूने वाले सारे ही सामान चले आयेंगे
शब्दों के ये भोले भाले कुछ मेहमान चले आयेंगे
मंच मिले न मिले मुझे इसकी परवाह नहीं है कोई.
मेरे गीत तुम्हारे दर तक कानो कान चले आयेंगे
चांदी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया
अब इन टुकड़ों को भी लेजा इन्हें यहाँ क्यों छोड़ दिया
कवि प्रतुल वशिष्ठ जी
के पाकिस्तान और भारत के रिश्तों पर व्यंग्यात्मक अपडेट रचना प्रस्तुत करने के बाद शोभना वेलफेयर सोसाइटी के कोषाध्यक्ष और युवा कवि सुमित प्रताप सिंह जी ने अपने छंद रुपी तड़कों से खूब रंग जमाया
जूते खाने से बचे दुनिया के सिरमौर
अगला जूता कब पड़े बुश फरमाते गौर
बुश फरमाते गौर बात अब बहुत बढ़ गयी
सारी दुनिया हाथ धोय के पीछे पड़ गए
विश्व सँवारे पूरा जो जिनके बूते
उस देश के मुखिया के किस्मत हाय जूते
ये खूने तमन्ना मुझसे अब देखा नहीं जाता
आ जिंदगी तुझे कातिल के हवाले कर दूँ
इसके बाद मान्यवर श्री रमेशबाबू शर्मा ‘व्यस्त’ जी ने अपनी प्रेरक रचनाओं की संजीदगी से श्रोताओं को मुग्ध किया
पंजाब हिमाचल तथा आसाम यहाँ है केरल तमिलनाडु राजस्थान यहाँ है
कोई भी प्रांत दर्द मेरा बांटता नहीं मै पूंछता हूँ मेरा हिन्दुस्तान कहाँ है
****
काग के कोसे पशु मरते नहीं
ईर्ष्या से मधुर फल झरते नहीं
व्यर्थ मत फूंको कुढन मे जिंदगी ऐ सत्पुरुष
सत्पुरुष पर-नींद को हरते नहीं
काव्य सभा के मुख्य अतिथि श्री जगदीश चन्द्र शर्मा जी (अध्यक्ष हिंदी साहित्य कला प्रतिष्ठान दिल्ली) ने रचना से पूर्व अपने अमूल्य वचनों से नवोदित रचनाकारों का पथ प्रदर्शन करते हुए कहा कि रचना करते समय व्यंजनाओं का आलम्ब लेना आवश्यक है परन्तु इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी पर व्यक्तिगत कटाक्ष से बचना चाहिए, जैसे आज के मीडिया चैनल खबर देने की जगह खबर लेने मे लगे हुए हैं … जबकि खबर जनता को लेना चाहिए ….. महाकवि कालिदास के नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम का उद्धरण देते हुए बताया कि किस तरह रचनाकारों को किसी पर तंज किये बिना अपनी बात कहने का प्रयास करना चाहिए… अर्थात धनात्मक और सृजनात्मक दिशा मे रचनाएँ की जाएँ तो उत्तम है… यद्यपि प्रत्येक रचनाकार अपनी रचनाओं के लिए स्वतंत्र है.
मान्यवर श्री जगदीश चन्द्र शर्मा जी ने अपनी सहज लेकिन अंतस को पोसती हुई एक रचना प्रस्तुत की—-
मैंने अपने मित्र से कहा तुम इस जलते दीप को लेकर कहाँ जा रहे हो तुम्हारा घर तो प्रकाश से भरा है….. मेरे अँधेरे घर को इसका प्रकाश चाहिए…… इसे मुझे दे दो … किन्तु अज्ञान के आवरण मे लिपटे मित्र ने कहा….. मै अपने अंतस के अन्धकार को मिटाने के लिए मै इसे गंगा माँ को अर्पित करना चाहता हूँ ……और उसने अपना दीप गंगा की लहरों मे प्रवाहित कर दिया….. देखते देखते एक नहीं दो नहीं असंख्य दीप निष्प्रयोजन ही गंगा की लहरों मे समाहित हो गए और मेरी कुटिया मे अँधेरा है
अंत मे काव्य सभा के अध्यक्ष श्री दीपकशर्मा जी (वरिष्ठ कवि एवं गीतकार) ने सभी कवियों को धन्यवाद देते हुए अपने अशआरो से श्रोताओं को मुग्ध किया—
न हिंदू न सिख ईसाई न मुसलमान हू
कोई मज़हब नहीं मेरा फकत इंसान हूँ
मुझको मत बांटिये कौमों ज़बानों मे
मै सिर से पाँव तलाक हिन्दोस्तान हूँ
यहाँ यह भी उल्लेख करना चाहूँगा कि शोभना वेलफेयर सोसाइटी निर्धन बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं के लिए कार्य करती है… सोसाइटी का कुछ विवरण निम्न प्रकार है -
कार्यालय- २४४/10 त्रिपथ स्कूल ब्लाक मंडावली, दिल्ली
फोन- 011-22474775
श्री अयोध्या प्रसाद वशिष्ठ – संरक्षक
सुश्री शोभना तोमर – अध्यक्ष
श्री सुमित प्रताप सिंह- कोषाध्यक्ष
श्री रंजीत सिंह – संयोजक
Posted via email from हरफनमौला
रोना हज़ार रोते हैं (व्यंहज़ल)
22 अग 2010
by padmsingh
लिखते लिखते सोच रहा था ये क्या लिख रहा हूँ मै ? गज़ल का शिल्प, हास्य का रस, और व्यंग्य की तासीर का मिलाजुला स्वरुप देख कर मन मे आया कि इसे क्या कहूँ .. और फिर शायद एक नयी विधा या शब्द का जन्म हुआ ऐसा लगता है….
व्यंग्य+हास्य+गज़ल=(व्यंहज़ल)
तो व्यंहज़ल अर्ज़ है……..हल्के फुल्के मन से मुस्कुराते हुए स्वीकारिये …
अंतिम शेर संजीदा एहसासों की शिद्दत से अभिव्यक्ति है…
रोना हज़ार रोते रहे देश काल के
फेंके न आस्तीं के संपोले निकाल के
चारों तरफ़ बिछी है सियासत की गंदगी
यारों कदम बढ़ाना जरा देख भाल के
भेजा वही है, सोच वही, आदतें वही
बदले हैं कलर लल्ला ने सिर्फ बाल के
मिलते ही सुकन्या ने हाइ गाइ! यूँ कहा
आसार नज़र आने लगे चाल ढाल के
लहसुन पेयाज़ मसाले का त्याग देखिये
साहब ने मछली खाई तो वो भी उबाल के
कुछ भी न दिया हो विकास ने यहाँ मगर
झुरऊ मज़े लेते हैं सरे-शाम मॉल के
इस दौर फर्ज-ओ-फन की खैर बात क्या करें
ईमान खरीदे गए सिक्के उछाल के
Posted via email from हरफनमौला
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