सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

संत्रास

कब तक ये संत्रास रहेगा
कब तक ये वातास बहेगा

धूप न मिल पाई बिरवे को
निर्मम कारा के गह्वर में
प्यास न मिट पाई मरुथल की
धूल धुंध फैली अन्तर में
सरसिज की आहों में कब
पतझड़ का आभास रहेगा

आंखों को चुभने लगता है
पलकों का सुकुमार बिछौना
मन की तृषा भटकती ऐसे
जैसे आकुल हो मृग छौना
आख़िर कब तक इन राहों को
मंजिल का विश्वास रहेगा

विधि के हांथों जीवन की भी
डोर छोर पुरजोर बंधी है
जहाँ राह ले जाए रही के
सपनों की डोर बंधी है
रजा राम संग सीता को
मिलता ही वनवास रहेगा
कबतक ये ...........

छोटा सा बडप्पन

जब भी उधर से गुजरता हूँ , नज़रें ढूंढती रह जाती हैं उसे
लेकिन फिर कभी नहीं दिखा मुझे वहां पर
‎प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश  शहर का  रेलवे स्टेशन..February ‎24, ‎2006 दोपहर के बाद का समय था...हलकी धूप
थी. गुलाबी ठण्ड में थोड़ी धूप अच्छी भी लगती है और ज्यादा धूम गरम भी लगती है ... स्टेशन पर बैठा इंतज़ार कर रहा था और ट्रेन लगभग एक घंटे बाद आने वाली थी ..... बेंच पर बैठे बैठे जाने क्या सोच रहा था ...
चाय ..... चाए .....की आवाजें या फेरी वालों की आवाजें रह रह कर मेरी तन्द्रा तोड़ देतीं ........वहीँ स्टेशन पर पड़े दानों के पीछे चार पांच कौए आपस में झगड़ने का उपक्रम कर रहे थे ...जिनके खेल को मै बड़ी तन्मयता से बड़ी देर से देख रहा था ... इसी बीच मुझे किसी के गाने की आवाज़ ने चौकाया ..... कोई गा रहा था दूर प्लेट फार्म पर ... आवाज़ तो अच्छी नहीं थी पर जो कुछ वो गा रहा था उसके शब्द मुझे उस तक खीच ले गए ...
कद लगभग ढाई से तीन फुट के बीच ही था उसका ... पर उम्र लगभग ३० के आस पास रही होगी
उत्सुकता वश बहुत से लोग उसके करीब आ गए और गाना सुनते रहे ,....
किसी ने एक दो रूपया दिया भी उसे .... पर उसका गाने का ढंग और उसके गीतों  का चयन मुझे छू  रहा था 
कुछ देर बाद जब थोड़ी फुर्सत सी हुई तो मैंने उत्सुकता वश उसे अपने पास बुलाया और बात करने लगा..... 
बताया कि मेरा घर यही प्रतापगढ़ के पास चिलबिला स्टेशन के पास ही है
माँ बाप का इकलौता हूँ ....बाबा रहे नहीं ..... अम्मा हैं
अब मेरी हालत तो देख ही रहे हो बाबू
और कोई काम तो कर नहीं सकता सिवाय इस के,.......
मुझे गाने का बहुत शौक था तो गाने लगा हूँ बचपन से ही
..........मैंने कहा आज कल तो विकलांगों के लिए सरकार बहुत कुछ कर रही है
.......... सरकार क्या करेगी ज्यादा से ज्यादा एक साइकिल देगी या फिर रेल का किराया कम कर देगी और कुछ कर नहीं सकता पढ़ा लिखा भी नहीं हूँ
.................................................
एक बार सर्कस वाले आये थे कहने लगे चलो हमारे साथ हम तुमको पैसे भी देंगे और देश बिदेस घूमना हमारे साथ
....... फिर?
पर साहब मेरी माँ का क्या होगा यहाँ पर ... बाबा(पिता) रहे नहीं.......
अम्मा बीमार रहती हैं ..... दमे की मरीज़ हैं तो .......
अब उनकी देख रेख मै नहीं करूँगा तो कौन करेगा .....कहती हैं तू चला जा सर्कस में ..... पर बाबू जी ....... अम्मा को छोड़ कर जाने का दिल नहीं करता ....उसकी बातों में अम्मा के लिए प्रढ़ अपनापा और संवेदना झलक रही थी
बहुत मयाती हैं हमका अम्मा
और फिर औलाद किस दिन के लिए होती हैं........
जौ हमहीं चले जायेंगे छोड़ कर ....... तो और कौन साथ देगा ?
आज देर होई गई आवे मा....... अम्मा की तबियत ज्यादा खराब होई जात है  सर्दी मा..!!
आज तो हमरो तबियत कुछ ढीली है .......मगर का करी .... दवाई ले जाय का है ...... यही बरे आवे का पड़ा( इसी लिए आना पडा)
.....दिन भर में कितना ?
अरे दिन भर में कितना का ....... कभी 20-30 रुपिया तो कभी भीड़ भई तो 70-80 रुपिया भी होई जात है दिन भर मा .........
पर उसके स्वभाव में लाचारी नहीं दिखी मुझे ....... एक चमक थी आत्म विश्वास की ......
मैंने ज्यादा पूछ ताछ करना ठीक नहीं समझा ......
मैंने कहा मेरे लिए एक दो गाने गाओगे?
बोला हाँ साहब क्यों नहीं
फिर अपने सोनी के मोबाइल फोन से उसका गाना रिकार्ड किया ......
जो कुछ हो सका दिया भी .....
पर अपनी माँ के लिए उस के भाव और बातें आज भी याद आती हैं
जब भी उधर से गुजरता हूँ , नज़रें ढूंढती रह जाती हैं उसे
लेकिन फिर कभी नहीं दिखा मुझे वहां पर
कभी कभी लगता है हम पढ़ लिख कर ...... सर्विस, व्यापार के चक्कर में अपनों से और अपने घर से इतनी दूर हो गए हैं ...
पैसे, उपहार ... चाहे जो भेज दें पर अपने बड़ों के पैर छूने की अहक इस "बनावटी बडप्पन" में कहीं घुट जाती है...

मै ये भी आपको बताना चाहूँगा कि .... मैंने उस से ये भी कहा था कि मै तुम्हरी बात अगर हो सका तो कहीं आगे ले जाऊँगा और तुम्हरी गाने की कला का कोई कद्र दान ढूँढूँगा ...... पर मेरे पास कोई ऐसा माध्यम नहीं था ...इस ब्लॉग के माध्यम से आज फिर सक्षम लोगों से गुज़ारिश करना चाहूँगा कि यदि आप कुछ कर सकें तो मै दोबारा उसे ढूँढने की कोशिश करूँगा ...
उसने जो गाया मै उस को लिख भी देता हूँ
हो सकता है कोई इस पोडकास्ट को सुन न पाए --

१- पढ़ने को मेरा उसने खत पढ़ तो लिया होगा
हर लफ्ज़ मगर कांटा बन बन के चुभा होगा
कसिद् ने खुशामद से क्या क्या न कहा होगा
शायद किसी भंवरे ने मुह चूम लिया होगा
शबनम के टपकने से क्या कोई कली खिलती
बेटा किसी बेवा का जब दूल्हा बना होगा
शादी में उस माँ का आंसू न रुका होगा
धनवान कोई होता तो धूम मची होती
निर्धन का जनाज़ा भी चुपके से उठा होगा
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२-
सर झुकते नहीं देखा किसी तूफ़ान के आगे
जो प्रेमी प्रेम करते हैं श्री भगवान के आगे
लगी बाजार माया की इसी का नाम है दुनिया
यहाँ ईमान बिक जाता फकत एक पान के खाते
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पाती

२-

पाती के संग बहते आंसू
पहुंचे तेरे पाँव में
परदेसी परदेस छोड़ कर
वापस आ जा गाँव में

दिल में लावा उबल रहा है
प्यासे रेगिस्तान है
कुछ बिरहा की याद सताए
कुछ दिल के अरमान है
मुझे झुलसता छोड़ बेदर्दी
जा बैठे तुम छाओं में
परदेसी परदेस छोड़ कर
वापस आ जा गाँव में

छोड़ा क्यों साथ मेरा माही
दुःख के सागर की बाँहों में
तुम उडे प्रीती का पिंजरा ले
मे बंधी पड़ी थी आहों में
टूट गया पतवार नाव का
छेद्द हो गए नाव में
परदेसी परदेस छोड़ कर.....

कुछ घर से कुछ बाजारों से
कुछ गलियों से चौबारों से
भेड़िये झांकते हैं अक्सर
इज्ज़त के ठेके दारों से
कुछ से बच कर बच पाई हूँ
कुछ छिपे खड़े है दाँव में
परदेसी परदेश छोड़ कर
वापस आ जा गाँव में

पूजा के फूल

पूजा के फूलों की
ये ही परिणति है क्या
चढ़ते है डाली से टूट
ईश चरणों में
मात्र अहम् पोषण को
मर्दन को शोषण को
अपनी ही जड़ से हो दूर
चूर हो किसी की अर्थी पर
चढ़ते भी तनिक न लजाते है
बनते है प्रीती का सिंगर
वार तन मन
मधु सेज भी सजाते है
गाते है झूम झूम
जब तक हों डाली पर
गाते इतराते है
उपवन पर माली पर
विधना के हाथों
क्यों तोड़ दिए जाते है
छोड़ दिए जाते है
पथरीली राहों पर
कैसे ये सृष्टि भला
दारुण दुःख ढोती है
धिक् है प्रलय कंदराओं में
सोती है
००००००००००००००००००००००००००

प्रकाश पर्व ..... यादों के झरोखों से

असत्य पर सत्य की विजय ... हर्षोल्लास और प्रकाश के पर्व दीपावली का
पुनरागमन हुआ है ...मौसम सुहाना हो चला है… दशहरे से प्रारम्भ हो कर
दीपावली तक गुलाबी ठण्ड का मौसम रूमानी हो जाता है …. सुबह की सिहलाती
ठंडी हवा में हरे हरे पत्तों से लदी टहनियाँ उमंग के गीत गाती हैं …
कनेर की फुनगियों पर घंटियाँ लटकने लगी हैं मानो धन धान्य की देवी
लक्ष्मी की पूजा को आतुर हैं …धान की कटाई का मौसम भी आ गया है ... धान
की कटाई प्रारंभ होते ही गावों में जैसे कोई उमंग अंगड़ाई लेने लगती है…
कस्बों में मेले भरने लगते हैं ... जिनमे पिपिहरी बजाते तेल काजल किये
हुए गवईं बच्चे... ठेले पर ताज़ी गुड़ की जलेबी खरीदती मेहरारुएँ और ..बड़े
वाले गोलचक्कर झूले पर चीखती खिलखिलाती अल्हड़ छोकरियां..... कुछ बड़े
मेलों का रंग थोड़ा अलग होता है ... नौटंकी थियेटर की टिकट खिड़कियों पर
फ़िल्मी गानों का कर्कश शोर…और अंदर स्टेज पर चल रहे थिरकते उत्तेजक
नृत्य... जत्थे के जत्थे अपनी तरफ आकर्षित करते हैं ... जीवन के तमाम
झंझावातों में फंसा मन जाने क्यों इस मौसम के साथ बचपन की उमंग की बराबरी
नहीं कर पाटा लेकिन बचपन के अनुभव कभी भूले भी नहीं जाते .. … बचपन की
यादें… कहाँ तक याद करें …
कुछ सालों पहले गावों में ठण्ड जल्दी पड़ने लगती थी(शायद आज भी) … दशहरे
तक गर्म कपड़े निकाल लिए जाते थे … गरम कपड़े के बक्से निकाल कर धूप में
रखे जाते तो बड़े बड़े बक्सों में (छोटे छोटे हम) घुस कर अपने आप को उसमे
बंद कर लेते और देर तक खेलते रहते … हर साल बहुत से कपड़े एक साल में ही
छोटे हो जाते थे जिसे या तो कोई छोटा अपने लिए छांट लेता या फिर दुबारा
सहेज कर रख दिए जाते. शेष अनावश्यक कपड़े किसी जरूरतमंद को बाँट दिए जाते.

दशहरे के पहले से ही मौसम उमंग से भरने लगता ... गाँव के खेतिहर और लगभग
साल भर अपनी खेती बाड़ी में जुते रहने वाले नीरस से दिखने वाले गंवई लोगों
में से जाने कहाँ से रामलीला के कलाकार पैदा होते थे… हारमोनियम की करुण
तान पर, भाई लखन के लिए जब राम विलाप करते … तो दर्शक दीर्घा में लोगों
की आँखें छलछला जातीं .. हलवाई की दूकान करने वाले लखन नाई जब इन्द्रजीत
की भूमिका में उतरते तो रावण की लंका सजीव हो उठती… रामलीला की चौपाइयाँ
और हारमोनियम की सुर तरंगें ढोलक की थाप के साथ मिल कर एक अद्भुद सम्मोहन
पैदा करतीं…इस मुफ्त के मनोरंजन में तथाकथित संभ्रांत जन कम ही रहते …
लेकिन मजदूरों के बच्चे और औरतें एक फतुही लपेटे ठण्ड में गुरगुराते हुए
रात भर राम लीला देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे ….

दशहरा से दीपावली तक मौसम धीरे धीरे ठण्ड और धुंध के आगोश में समाया करता
… सुबह घास की नोकों पर और टहनियों पर लगे मकड़ी जाले पर ओस की बूँदें
गुच्छा दर गुच्छा ऐसे लगती हैं जैसे किसी ने मोतियों की लड़ी पिरो रखी
हो…खेत की मेड़ों पर सुबह सुबह पैर ओस से तर हो जाते .... सुबह जल्दी उठ
कर खेतों की तरफ टहलने जाना, अलाव के सामने बैठ कर इधर उधर की चर्चा
करना, और ढेर सारी फुरसत ....

धान की कटान से खेत और खलिहान में धान के बोझ के बोझ फैले रहते… सुबह
मुंहअँधेरे से ही मजदूर धान सटकने(निकालने) लग जाते…बड़ी देर तक रजाई में
पड़े पड़े सटाक... सटाक... की धुन सुनते रहते ... रास (राशि) तैयार होने पर
धान को बांटते समय मुझे टोकरीयों की गिनती करने के लिए बुलाया जाता… हो
राम…ये एक… ये दो… ये तीन… हर बारह टोकरी पर एक टोकरी धान मजदूरी दी जाती
थी… और सब से पहली टोकरी पुरोहित/ब्राह्मण को दान में देने के लिए अलग से
निकाली जाती. पूरा ढेर बंट जाने पर जमीन पर एक मोटी परत अनाज मजदूरों के
लिए अलग से छोड़ी जाती थी…दस पन्द्रह साल पहले तक नाई, कुम्हार, धोबी और
कहार आदि पैसे नहीं लेते थे … फसल होने पर इनके लिए अनाज की ही व्यवस्था
थी … इन्हीं के बदले पूरे साल अपनी सेवाएं देते थे… खलिहान की रौनक पूरे
दिन बनी रहती … ये सिलसिला दीपावली के बाद भी चलता रहता…

दीपावली आने से पहले पूरे घर का कायाकल्प किया जाता… हफ़्तों सफाई, पुताई
और कच्ची फर्शों पर लिपाई से घर दमकने लगता… गमकने लगता … दीपावली के दिन
सुबह कुम्हार बड़े से टोकरे में ढेर सारे दिए, हमारे लिए मिट्टी की
घंटियाँ और छोटी छोटी मिट्टी की चक्कियाँ और घूरे पर जलाने के लिए कच्चे
दिए भी लाते…(वो कहते हैं न… कि कभी न कभी घूरे के भी दिन लौटते हैं) शाम
होते होते दीयों को पानी में भिगा दिया जाता जिससे दिए तेल नहीं सोखते…
सरसों और अलसी के ढेर सारे तेल से सारे दिए भरे जाते… बातियाँ लगाईं
जातीं और देर तक सब मिल कर छत पर दिए सजाते…नए कपड़े पहनते.. खील बताशे और
चीनी के खिलौनों के साथ मिठाई बाँटी जाती …. रात में देर तक पटाखे चलाते…
थोड़ी देर पढ़ाई करते( घर वाले कहते…. आज पढ़ोगे तो पूरे साल पढ़ाई अच्छी
होगी) कच्चे दिए पर बाती में अजवायन भर कर उतारे गए काजल सबको लगाए जाते
फिर सब सो जाते… सुना था कि दीपावली के दिन जिसका जो भी काम होता है उसे
जगाता है….मन में हर बार आता था ... क्या चोर, भ्रष्टाचारी और अनैतिक
लोगों की मंशा भी फलित होती है दीपावलि को ?

समय के साथ साथ बहुत कुछ बदला है ... बदल रहा है ... दीयों की जगह चाइनीज़
बिजली की लड़ियों ने ले ली है ... शुभकामना सन्देश एस एम् एस से कितनी
तीव्रता से संप्रेषित हो रहे हैं.... और घर के मावे की मिठाइयों की जगह
नकली मावे और नकली दूध की मिठाइयों ने ले ली है ,... आस्था, परंपरा और
रिश्तों में बाजारवाद कहीं न कहीं चुपके से घर करता जा रहा है ....
परिवर्तन समय का नियम है ... परिवर्तन होते रेहेंगे... ईश्वर करे स्नेह,
प्रेम, संवेदनाओं और रिश्तों की ज़रूरत बनी बनी रहे ... किसी बहाने ही सही
...

प्रकाश पर्व दीपावलि की शुभकामनाएं

मेरे द्वार पर जलते हुए दिए
तू बरसों बरस जिए ...
आंधियां सहना
मगर द्वार पर ही रहना
क्योकि यही है
मेरी अभिलाषा
मेरी आकांक्षा
मेरी चाह

कि सदा आलोकित करना
द्वार से गुज़रती हुई राह
क्योकि जब कोई राही
अपनी राह पायेगा
प्रकाश से दमकता कोई चेहरा
मुस्कुराएगा
तो उजाला मेरी बखार तक न सही
अंतर्मन तक जरूर आएगा
अंतर्मन तक जरूर आएगा

.......आपका पद्म

Posted via email from हरफनमौला

बेटा!!… मेडल जुगाड़ से जीते जाते हैं ….समझे?

चौथी क्लास की कोई दोपहर रही होगी … लेकिन जेहन में अभी भी उतनी उजली है…
रघुनाथ मुंशी जी ने पूरे क्लास को संबोधित किया … गाना वाना आवत है कौनो
को ? सरकारी प्राइमरी और कान्वेंट की नर्सरी में फर्क के नाम पर बहुत कुछ
होता है… कहना ही क्या … फ़िलहाल … जाने कैसे और क्यों मुझे खड़ा किया गया
और “कौनो गाना सुनाव बेटा" का आदेश मिला… उस समय अकल कम ही होती थी मेरे
पास… अपने आप को देश भक्त समझा करता था(शायद आज भी)… इसीलिए बहुत सारे
देश भक्ति के गाने याद रहा करते थे … मुंशी जी का आदेश था … महुवे के पेड़
के नीचे (जहाँ अब ग्राम सभा का खडंजा बिछ गया है वहीँ) काँपती टांगों पर
खड़े हो कर लगभग बेसुध सा अपने जीवन का पहला सार्वजनिक गीत गाया था …
जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती हैं बसेरा .. वो भारत देश है मेरा …
वो भारत देश है मेरा …

बाद में पता चला मेरा चयन रेडक्रास की स्कूल टीम के लिए किया गया था… मै
अपनी क्लास में सबसे छोटा दीखता था( शायद था भी) क्योकि उस समय के जी और
नर्सरी नहीं होती थी … “पहली”, फिर “बड़ी” और फिर सीधे दुसरे क्लास में …
मैंने दूसरा क्लास नहीं पढ़ा .. सीधे पहले से तीसरे में.. इस लिए सब से
छोटा था. टीम की तैयारियां पूरे जोरों पर होतीं… ग्रुप में आठ लड़के …कुछ
तो ढपोंगे थे … रेडक्रोंस के लिए तैयार नाटक के डायलोग याद करते,
डिप्थीरिया, काली खाँसी और टिटनेस का टीका “DPT” सीखते… बैसिलस कालवेटिव
ज्युरिल(BCG) के टीके याद करते … चेचक के समय क्या क्या सावधानियां होनी
चाहिए… इमरजेंसी में मुंह से सांस देना, फिर एक दो तीन .. तीन बार सीने
पर दबाव देना फिर एक…दो.. तीन … सांस देना … मतलब कि बहुत कुछ… जनपद
स्तर, मंडल स्तर और राज्य स्तर या नेशनल… जहाँ भी गयी टीम प्रथम स्थान ही
लेकर आई …

एक थे राम नारायण पंडिज्जी ( पंडिज्जी माने गुरु जी)….. जिसने लोटपोट
कोमिक्स पढ़ी हो वो डाक्टर झटका को हुबहू याद कर लें… ऐसे ही थे पंडिज्जी
… “ब्बता रहा हूँ जो है…समझे? " उनका तकिया कलाम होता … ब्बता रहा हूँ जो
है ऐसा ..समझे?? … ब्बता रहा हूँ जो है वैसा …समझे??…. वैसे तो पंडिज्जी
क्राफ्ट के मास्टर थे लेकिन काम था टीम बनाना और लड़वाना.. रेडक्रोस,
सेंटजान एम्बुलेंस,मेकेंजी, और स्काउटिंग आदि कोई भी कम्पटीशन हो … पंडित
जी हर विधा में निपुण… साम दाम दंड भेद सारे के सारे उनकी उंगलियों
पर…रघुनाथ मुंशी जी उनके सहयोगी हुआ करते…क्राफ्ट के मास्टर होने के कारण
खूबसूरत डायरियां बनाते जिनमे हम रेडक्रास के कैडेट्स द्वारा किये गए
स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्यों और जागरूकता अभियानों का ब्यौरा होता…

हम पूरे मनोयोग से जीतने के लिए ही निकलते थे … हम जहाँ भी जाते पूरा लाव
लश्कर साथ चलता … मै छोटा था … मुश्किल से अपनी अटैची उठा पाता.. बेडिंग
कोई सहपाठी या पंडित जी ही उठाते … ट्रेन में, बस में, होटल में जहाँ भी
जाते खूब धमाल मचाते…. गाते हुए, हँसते हुए खूब मज़े करते … (Smile)

जो भी मेडल हम जीतते वे हमें नहीं मिलते थे बल्कि स्कूल में अनुदान के
रूप में ले लिए जाते …. अगले साल आने वाली प्रतियोगिताओं के बच्चे उन्हें
लगा कर परेड में भाग लेते थे … इस तरह सब से ज्यादा मेडल हमारी टीम के
होते थे.

ये सब यूँ लिखा मैंने …. कि पंडिज्जी को सारी कलाएं आती थीं… टीम के
बच्चों को खूब खिलाते पिलाते…खूब सिखाते भी …जिस होटल पर टोली पहुँचती
होटल वाला खुश…छह सात दिनों के लिए ढेर सारे ग्राहक मिल जाते लेकिन वो
बात अलग, कि टीम की वापसी के समय पंडिज्जी के पास तीन चार दर्जन गिलास और
कुछ इससे ज्यादा ही दर्जन चम्मचादि हुआ करते … Winking smile होता यह था
कि जिस होटल वाले ने परेशान किया,अच्छा खाना नहीं दिया या शोषण किया
उसका बदला पंडिज्जी ऐसे ही लेते थे…

अगले दिन आगरा में कम्पटीशन का फाइनल था… रेडक्रास और सेंटजान
एम्बुलेंस का… हम सब कल होने वाले वाइवा और प्ले की तैयारियों में व्यस्त
थे…देर रात पंडिज्जी लगभग बीस पच्चीस सर्टिफिकेट, जिन्हें कल विजेताओं को
वितरित किया जाना था लिए हुए कमरे में घुसे ….सभी सर्टिफिकेट्स पर तीन या
चार अधिकारिकों के हस्ताक्षर पहले से थे… सिर्फ नाम भरा जाना था … सुन्दर
सुन्दर हर्फों में सब टीम मेम्बर्स के नाम लिखे गए…प्रथम स्थान की घोषणा
भी लिखी गयी …. और कमाल देखिये … कल आने वाले दिन में हम प्रथम घोषित
किये गए और अपने हाथों से लिखे सर्टिफिकेट भी प्राप्त किये …

हमसे रहा नहीं गया तो पूछ बैठे … पंडिज्जी ! सर्टिफिकेट पर आपने कल ही
प्रथम स्थान प्राप्त किया" लिख दिया था … ये कैसे हुआ… पंडिज्जी ने पान
खाया हुआ मुंह थोड़ा ऊपर उठाया और अत्यंत रहस्यमयी मुस्कान बिखेरते हुए
बोले….

ब्बता रहा हूँ जो है……बेटा….!!! मेडल जुगाड़ से जीते जाते हैं …समझे?

(हुआ यह था कि किसी स्कूल वालों ने पंडित जी को चैलेन्ज दे दिया था.. इस
बार कम्पटीशन जीत के दिखाओ)

पिछले दिनों गाँव गया तो अचानक पंडिज्जी से मुलाक़ात हो गयी…पंडिज्जी
पणाम! …बहुत खुश हुए अपने पुराने “टोली नायक” से मिल कर … पंडिज्जी की
उमर ढल चुकी है…रिटायर हो चुके हैं … अपने पुत्र धौताली के साथस्कूल खोला
है … हाई स्कूल और इंटरमीडियेट में गारंटीड सफलता के लिए सारे जुगाड़
युक्त स्कूल… Smile

Posted via email from हरफनमौला

महत्वाकांक्षाओं के फावड़े…कुत्ते की हड्डी और… मुल्ला नसीर का जूता

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“कहाँ से शुरू करूँ”….मुझे अक्सर यह प्रश्न सताता है …. इसी सोच में शुरू  करना और भी मुश्किल होता जाता है … धीरे धीरे  बहुत सारे दिन और विचार इसी उधेड़बुन में निकल जाते हैं … कहाँ से शुरू  करूँ … ये बहाना भी हो सकता है… दरअसल प्रश्न ये होता होगा कि  क्या शुरू करूँ … कुछ भी लिख देना दुनिया की नज़र में आकर्षक हो सकता, अगर मेरे पास  एक सेलेब्रिटानी वर्तमान होता, विरासत में मिला कोई स्तरीय(ऊच्च या निम्न) अतीत होता, स्वप्निल और स्वर्णिम भविष्य के सपने होते या फिर कम से कम एक बौराया पगलाया प्रेम ही होता … सोचना, सोच को लिखना और सोच को अभिव्यक्त करना और अंततः  क्रियान्वित करना …  क्रमशः दुरूहतर होते हैं …शायद इसीलिए हर शुरुआत में ये प्रश्न बार बार खड़ा हो जाता है कि “कहाँ से शुरु करूँ”

giving-you-the-best-darwin-leonकई बार ‘लक्ष्य' , ‘उपलब्धि', और ‘महत्वाकांक्षा' जैसे शब्द खोखले लगने लगते हैं… क्योकि हर उपलब्धि अपने पीछे एक निराश सूनापन छोड़ जाती है… हर लक्ष्य की प्राप्ति पर नया लक्ष्य खड़ा मुंह चिढ़ाता दीखता है…और पीछे  एक और अतृप्त तृष्णा शेष रह जाती है… हर उपलब्धि महत्वाकांक्षा के नए प्रतिमान गढ़ लेती है… और इसी चक्रव्यूह में सारी शक्तियाँ (मानसिक शारीरिक) खप जाती है…  पूरी उम्र लक्ष्यों की खोज में  वास्तविक प्राथमिकताएं तो उपलब्धियों के पीछे यूँ दबी रह जाती है जैसे रेशमी कुर्ते के ठीक नीचे फटी बनियान… हम छोटी छोटी उपलब्धियों को ही अपना लक्ष्य मान लेते हैं और ढेर सारी प्राथमिकताएं  में भ्रूण अवस्था में ही दम तोड़ देती हैं… महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ में हम अपने प्रिय, अपने सम्बन्धियों सहित स्वयं के साथ भी अनजाने ही यंत्रवत हो कर रह जाते हैं….आत्मीयता की सरिता जैसे सूख जाती है… हर रिश्ता औपचारिक और हर  कृत्य दिखावा मात्र रह जाता है. 

एक लघुकथा याद आती है… मुल्ला नसीरुद्दीन के पास एक जूता था … जूता इतना तंग कि पहनना भी मुश्किल… इस वजह से काटता भी बहुत था … लेकिन मुल्ला को जूते से बहुत प्रेम था … किसी मित्र ने पूछा यार मुल्ला नसीरुद्दीन.. तुम नया जूता क्यों नहीं ले लेते…. मुल्ला का जवाब था … यार जीवन में सारे सपने रीते पड़ गए… सारी महत्वाकांक्षाएँ अतृप्त रह गयीं …ऐसे में मेरे सुख का एकमात्र सहारा ये जूता ही है… पूरे दिन पैर में काटता है…पूरे दिन इसकी टीस मुझे परेशान करती है ..लेकिन शाम को जब मै इसे उतारता हूँ तो बेहद सुकून मिलता है … मेरे जीवन में एकमात्र यही सुख का साधन है … इसी लिए इस जूते को मै नही बदलता… मिथ्या सुख के बड़े बड़े लक्ष्यों के पीछे अपने आत्मिक सौंदर्य को निहारना जैसे भूल ही जाते हैं… इसे ऐसे भी समझें कि “सुख, आनंद का शार्टकट बाईपास है" … आश्चर्य तो यह कि अधिकतर हमें अपनी वास्तविक प्राथमिकताओं का भान भी नहीं होता…  जैसे कुत्ता सूखी हड्डी को चबाता है और अपने ही मसूड़े के खून से तृप्त होने का भ्रम पालता है, ऐसे ही मनुष्य महत्वाकांक्षाओं के फावड़े से अपनी आत्मा की कब्र खोदता रहता है और अंत में जब तक वस्तुस्थिति का भान होता है… कोई अवसर शेष नहीं होता…  ये बात तो अंत में पता चलती है कि “जीवन में रीसेट का बटन नहीं होता"

“दुनिया जीतने की चाह में मनुष्य अपने आप को हार जाता है"

अंत में कबीरदास का एक निर्गुण जो शायद सारे भ्रम तोड़ कर वास्तविकता के धरातल पर ला पटकता है….

भंवरवा के तोहरा संग जाई,
आवे के बेरियां सभे केहू जाने,
दु्अरा पे बाजे बधाई,
जाइ की बेरियां, केहू ना जाने,
हंस अकेले उड़ जाई....
भंवरवा के तोहरा संग जाई,

देहरी पकड़ के मेहरी रोए,
बांह पकड़ के भाई,
बीच अंगनवां माई रोए,
बबुआ के होवे बिदाई,
भंवरवा के तोहरा संग जाई,

कहत कबीर सुनो भाई साधो,
सतगुरु सरन में जाई,
जो यह पढ़ के अरथ बैठइहें,
जगत पार होई जाई,
भंवरवा के तोहरा संग जाई।

 

……….. आपका पद्म सिंह

(चित्र-गूगल से साभार)