ये मौसम जब भी आता है मुझे जाने क्या होने लगता है....
गर्मी जाने वाली है गुलाबी ठण्ड आ रही है ... सबकुछ अच्छा लगता है...
दीपावली पर गाँव जाते समय मन की उमंग कुछ और ही थी ... रस्ते में कार रोक कर मेले में चल रही नौटंकी का मज़ा भी लिया। संगीत चल रहा था ... छोटी छोटी दुकाने सजी हुई थी । ज्यादातर लोग मध्यम या निम्न आर्थिक वर्ग के ही रहे होंगे । समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी मॉल और मल्टीप्लेक्स की संस्कृति से बहुत दूर है ... आजीविका की कशमकश और आभाव के झंझावातों मेंघिरा हुआ ये वर्ग कहीं न कहीं इन मेलों में अपने दबे कुचले सपनों एवं तथाकथित वासनाओं की चिंगारी को हवा दे लेता है...
बहुत से लोग शहरों में ऐसे भी हैं जिनके पास अपना गाँव नही है ... उन्हें संभवतः पता भी न हो की गाँव की फिजा , गाँव की महक क्या होती है । ये तो उसी को पता होगा जो अपना बचपन के गाँव की छाछ मक्खन छोड़ कर मॉल का पिज्जा बर्गर, चाऊमीन सेवन कर रहे हैं । आज इस मौसम में मुझे अपनी एक पुरानीरचना याद आ गई।
लोक भाषा में लोक गीत ----
घुंघटा माँ छुपी तकदीर मोरी सजनी
कब मिटिहैं हियरा के पीर मोरी सजनी
होइहैं मिलन चितचोर मोरे सजना
घुंघटा माँ छुपी तकदीर मोरी सजनी
कब मिटिहैं हियरा के पीर मोरी सजनी
होइहैं मिलन चितचोर मोरे सजना
चन्दा के होई दा अंजोर मोरे सजना
ढुलके ला मंद मंद पागल बयरिया
ढुलके ला मंद मंद पागल बयरिया
बदरा माँ छुपिछुपि जाला अंजोरिया
जियरा धरे नाही धीर मोरी सजनी
कब मिटिहैं हियरा के पीर मोरी सजनी
कैसे बताई पिया जियरा की बतिया
लागे है लाज मोहे धडके है छतिया
मनवा पे चले नही जोर मोरी सजना
चंदा के होई दा अंजोर मोरे सजना
तोहरा जो पल भर के प्यार मिलि जाला
तो मरते को जिनगी उधार मिलि जाला
देखा न नैनन के नीर मोरी सजनी
कब मिटिहैं हियरा के पीर मोरी सजनी
हमारी पिरितिया है चंदा चकोर की
तोहरी सुरतिया किरिनिया है भोर की
छोड़ा न अंचरा के कोर मोरे सजना
चंदा के होई दा अंजोर मोरे सजना
१०-०१-१९९५ इलाहाबाद
जियरा धरे नाही धीर मोरी सजनी
जवाब देंहटाएंकब मिटिहैं हियरा के पीर मोरी सजनी
ये पीर आजीवन बनी रहती है,
एक अलाव की तरह जलती है,
धीर ही रहता है सदा जीवन मे
सजनी भी कभी कहीं मिलती है
गुलाबी ठंडक और उस पर की गुनगुनी धूप मौसम का ज़ायका ही बढ़ा देती है। अच्छा लगा आपका लिखा लोक गीत।
जवाब देंहटाएंnice
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