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रविवार, 5 दिसंबर 2010
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
तुम मुझे टीप देना सनम….टीपने तुमको आयेंगे हम
तुम मुझे टीप देना सनम
टीपने तुमको आयेंगे हम
ऐसे याराना चलता रहे
ब्लॉग की राह के हम कदम
एग्रीगेटर सजा कर थके
मेल सबको लगा कर पके
कोई झाँका नहीं इस तरफ
राह कोई कहाँ तक तके
हम भी चर्चा बना लें कोई
सारी मुश्किल समझ लो खतम
तुम मुझे टीप देना सनम
टीपने तुमको आयेंगे हम
कोई एसो सियेशन गढो
कभी टंकी पे जाओ चढ़ो
अपनी गलती को मानो नहीं
दोष औरों के माथे मढ़ो
माडरेशन लगा कर रखो
हम भी देखेंगे किसमे है दम
तुम मुझे टीप देना सनम
टीपने तुमको आयेंगे हम
कभी गूगल से फोटो चुरा
कोई कंटेंट मारो खरा
हेरा फेरी करो, चेप दो
कोई माने तो माने बुरा
ब्लॉग अपना है जो मन करो
कोई दिल में न रखना भरम
तुम मुझे टीप देना सनम
टीपने तुमको आयेंगे हम

टिप्पणी फिर भी मिलती नहीं
जब तलक टांग खींचो नहीं
भीड़ मजमे को मिलती नहीं
फूल से कुछ नहीं हो अगर
भीड़ में फोड़ दो आज बम

तुम मुझे टीप देना सनम
टीपने तुमको आयेंगे हम
(जस्ट खुराफात …:) )
………आपका पद्म
रविवार, 12 सितंबर 2010
ईद … जरूरत … रवायत … और पाइथागोरस प्रमेय
आज ईद भी है और गणेश चतुर्थी भी … कहीं कहीं हरतालिका तीज भी … इन सब के लिए पूरे देश को शुभकामनाएँ ….
कल सपत्नीक बाजार का रुख किया तो रास्ते में ही पता चल गया कि त्योहारों का मौसम आ गया है …. बाजारों में कपड़ों, चूड़ियों और शृंगार प्रसाधन की दुकानें ग्राहकों से पटी हैं … चूड़ी की दूकान पर जहाँ हिंदू औरतें तीज के लिए चूड़ियाँ खरीद रही थीं वहीँ मुस्लिम मोहतरमा लोग भी चूड़िया ले रहीं थीं … ये वाली नहीं थोड़ा मैचिंग में दिखाओ . सब कुछ घुला मिला सा लगा …. ये सब देख कर ऐसा लगता है कि इस देश में अनेक धर्म और जातियां कितना मिल जुल कर रहती हैं …यद्यपि कुछ समय से अपनी धार्मिक पहचान दिखाने की होड़ कुछ बढ़ी है ….फिर भी सामान्यतः तो रहन सहन और भाषा से अलग अलग पहचानना भी मुश्किल होता है ….ये सब देख कर धर्म और मजहब के नाम पर लड़ने मरने की बातें अविश्वसनीय लगती हैं …
सुबह मेरी पड़ोसन ज़न्नत बेगम जी जब ईद की सेवियां लेकर घर पर आईं तो मन सुखद अनुभूति से भर गया ….हमेशा हम ईद और दीपावली पर एक दुसरे से अपनी खुशियाँ और खाना पीना शेयर करना नहीं भूलते …
मेरे कुछ बचपन के मुस्लिम मित्र हैं … सगीर, अनीस जैसे दोस्तों के साथ तो बचपन से पढ़ा और खेला हूँ … ईद और होली दीवाली पर साथ मिले बैठे और खाया पिया… कभी भी कहीं से आपस में ऐसा लगा ही नहीं कि मै हिंदू हूँ या वो मुस्लिम… कई बार तो हम आपस में ऐसे मजाक करते जिसे कोई और सुने तो इसे धर्म या मज़हब का अपमान भी समझ सकता है … लेकिन दोस्ती की बातें हैं …. इतने सालों में कभी भी रवायत या किसी अन्य पूर्वाग्रह आपसी संबंधों के बीच कभी नहीं आये … हमारे बीच भाई जैसी घनिष्ठता और बेबाकी रही(और है भी)… सोचता हूँ वो ऐसी क्या वजह होती है जो इंसान को इंसानियत से अलग कर देती है … ये ज़िम्मेदारी इस युवा और पढ़े लिखे युवाओं पर जाती है कि भविष्य में रवायतों को मानवता के दायरे में कैसे सुरक्षित रखा जाए.,
दिल्ली में सन 1984 के दंगों में मेरे कुछ रिश्तेदार इस तरह की इंसानियत के जीते जागते सुबूत हैं जिन्होंने पूरे पूरे मोहल्ले सहित मिल कर बहुतों को अपने घर में छुपा कर … रात रात भर पहरा दे कर दंगाइयों से लोहा लिया और धार्मिक विद्वेष से ऊपर उठ कर मानवता की रक्षा की ,.. अगर हम इक्कीसवीं सदी के आधुनिक युग में मानवता की रक्षा नहीं कर पाए तो हमें बचाने ऊपर से भी कोई आने वाला नहीं है …
सीरियस बात खतम ….:)
अब मज़ेदार बात शुरू……
इस क्रम में दो होनहार दोस्तों(अतहर और अनिल) की सच्ची और रोचक दास्तान सुनाता हूँ…. जिसे सुना सुना कर दोनों घंटों लोट पोट हुए थे … ये दोनों ही मेरे पड़ोसी थे (दोनों अपने अपने जॉब में बिजी है आजकल)


“सभी को ईद और गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएँ”
आपका पद्म ……..बुधवार, 8 सितंबर 2010
जो हल निकाला तो सिफर निकले
by padmsingh in गजल, गज़ल.गजल, पद्म, पद्मसिंह, पद्मावलि Tags: इलज़ाम, गज़ल, धडकन, पद्म, पद्म सिंह रचनाएँ, सिफर, हल [Edit]
रात कब बीते कब सहर निकले
इसी सवाल में उमर निकले
तमाम उम्र धडकनों का हिसाब
जो हल निकाला तो सिफर निकले
बद्दुआ दुश्मनों को दूँ जब भी
रब करे सारी बेअसर निकले
हर किसी को रही अपनी ही तलाश
जहाँ गए जिधर जिधर निकले
हमीं काज़ी थे और गवाही भी
फिर भी इल्ज़ाम मेरे सर निकले
किसी कमज़र्फ की दौलत शोहरत
यूँ लगे चींटियों को पर निकले
उजले कपड़ों की जिल्द में अक्सर
अदब-ओ-तहजीब मुख्तसर निकले
….आपका पद्म ..06/09/2010
Posted via email from हरफनमौला
बुधवार, 1 सितंबर 2010
शह मिले या मात... देखी जायेगी
साल… दिन…शामें…लम्हे… जाने कितने ठहरावों की फेहरिस्त है हमारे माज़ी की डायरी मे…..कभी फुर्सत के पलों मे अचानक कोई सफहा दफअतन उलट गया तो अपनी जमा पूँजी मे से कुछ गिन्नियां तो कुछ कौडियाँ झाँकती दिखीं … जीवन के हर पल पर हम रुक कर अपनी मौजूदगी का खुद ही इतिहास बनाते रहने की कोशिश करते रहे … जाने कितने पड़ावों की खट्टी मीठी यादों को अपने एहसासों के गिर्द लपेटे दिन ब दिन भारी होते रहे …. हम अपने बीते पलों को अपनी पोटली मे लटकाए घुमते रहे … न चाहते हुए भी … खुशफहम यादों ने भले साथ छोड़ दिया हो … हर अनचाहे पलों की किर्ची गाहे बगाहे अपनी मौजूदगी जरूर दर्ज करवा जाती है …. और ठीक उसी समय जब कभी नहीं चाहा कि वो यहाँ हो… जन्मदिन, वार्षिकी और जाने क्या क्या मनाते रहे और खुश होते रह… किस बात की खुशी मनाते हैं हर पल… इसी बात की न ? … कि जो आने वाला कल है उसका क्या भरोसा … कम से कम हमारा माज़ी तो हमारी थाती है … इसीलिए तो हर पल को ठहर कर गौर से देख लेना चाहते हैं… जी लेना चाहते हैं … सामने का रास्ता धुंध से पटा है … अभी हैं अभी नहीं रहेंगे …. इसी लिए तो साल दर साल… लम्हे दर लम्हे …इतिहास बनने के लिए पल पल समेटते रहे ….रुकते रहे… ठहरते रहे …. लेकिन जो ठहरा नहीं कभी….. वो समय ही तो था ….
चंद अशआर आपकी नज़र कर रहा हूँ …. जीस्त की सौगात देखी जायेगी (जीस्त =जिंदगी)
शह मिले या मात देखी जायेगी
धूप है तो धूप से लड़ बावरे
रह गई बरसात, देखी जायेगी
एक जुगनू को जला कर, बुझा कर
तीरगी की ज़ात देखी जायेगी (तीरगी=अँधेरा)
मोहोब्बत की थाह पाने के लिए
जेब की औकात देखी जायेगी
बात कहने भर से बनती नहीं बात
बात मे कुछ बात देखी जायेगी
………आपका पद्म ०९/०१/२०१०
Posted via email from हरफनमौला
बुधवार, 25 अगस्त 2010
काव्य,वेलफेयर और बारिश की एक शाम …
23 अग 2010
तीन चार दिन पूर्व मेरे कवि मित्र सुमित प्रताप सिंह जी का ई-मेल मिला कि चौसठवें स्वतन्त्रता दिवस के उपलक्ष्य मे शोभना वेलफेयर सोसाइटी के तत्वाधान एक कवि सम्मलेन का आयोजन किया गया है जिसमे मुझे आमंत्रित किया गया है…नदीम जी से पूर्व कुछ अन्य उदीयमान रचनाकार अपना काव्यपाठ कर चुके थे जिन्हें न सुन पाने का खेद है जिनके नाम इस प्रकार हैं
१ – अनुराग अगम २ -जयदेव जोनवाल
देखता हूँ कैसा कैसा ख्वाब मे
तेरी खुशबू तेरा जलवा ख्वाब मे
तेरी आँखें तेरा चेहरा तेरे लब
ख्वाब ने भी ख्वाब देखा ख्वाब मे
……………………………………….
कंकड़ समेट कर कभी पत्थर समेट कर
हमने मकाँ बनाया है गौहर समेट कर
नाकामियों ने जब हमें जीने नहीं दिया
हमने भी रख दिया है मुकद्दर समेट कर
टुकड़ों मे बाँट देता हूँ तस्वीर आपकी
फिर उनको चूम लेता हूँ अक्सर समेट कर
——————————————-
गुलों को गुलची सितारों को खा गया सूरज
खैर साये की मियाँ सर पे आ गया सूरज
तमाम दुनिया की हस्ती पे छा गया सूरज
और औकात भी सब की दिखा गया सूरज
जैसे अहबाब के सीने से लिपटता है कोई
अब्र के सीने मे ऐसे समा गया सूरज
अब तो आ जाओ कि मै इंतज़ार करता हूँ
अब न शर्माओ कि कब का गया गया सूरज
गुरूर इसका भी ‘काविश’ खुदा ने तोड़ दिया
आओ कोहरे से वो देखो दबा दबा सूरज
इसके बाद नवोदित कवि श्री जितेन्द्र प्रीतम जी ने अपनी शिल्प और भाव से परिपक्व रचनाओं से बहुत प्रभावित किया -
पूरी हिम्मत के साथ बोलेंगे जो सही है वो बात बोलेंगे
आखिर हम भी कलम के बेटे हैं दिन को हम कैसे रात बोलेंगे
***
दिल को छूने वाले सारे ही सामान चले आयेंगे
शब्दों के ये भोले भाले कुछ मेहमान चले आयेंगे
मंच मिले न मिले मुझे इसकी परवाह नहीं है कोई.
मेरे गीत तुम्हारे दर तक कानो कान चले आयेंगे
चांदी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया
अब इन टुकड़ों को भी लेजा इन्हें यहाँ क्यों छोड़ दिया
कवि प्रतुल वशिष्ठ जी
के पाकिस्तान और भारत के रिश्तों पर व्यंग्यात्मक अपडेट रचना प्रस्तुत करने के बाद शोभना वेलफेयर सोसाइटी के कोषाध्यक्ष और युवा कवि सुमित प्रताप सिंह जी ने अपने छंद रुपी तड़कों से खूब रंग जमाया
जूते खाने से बचे दुनिया के सिरमौर
अगला जूता कब पड़े बुश फरमाते गौर
बुश फरमाते गौर बात अब बहुत बढ़ गयी
सारी दुनिया हाथ धोय के पीछे पड़ गए
विश्व सँवारे पूरा जो जिनके बूते
उस देश के मुखिया के किस्मत हाय जूते
ये खूने तमन्ना मुझसे अब देखा नहीं जाता
आ जिंदगी तुझे कातिल के हवाले कर दूँ
इसके बाद मान्यवर श्री रमेशबाबू शर्मा ‘व्यस्त’ जी ने अपनी प्रेरक रचनाओं की संजीदगी से श्रोताओं को मुग्ध किया
पंजाब हिमाचल तथा आसाम यहाँ है केरल तमिलनाडु राजस्थान यहाँ है
कोई भी प्रांत दर्द मेरा बांटता नहीं मै पूंछता हूँ मेरा हिन्दुस्तान कहाँ है
****
काग के कोसे पशु मरते नहीं
ईर्ष्या से मधुर फल झरते नहीं
व्यर्थ मत फूंको कुढन मे जिंदगी ऐ सत्पुरुष
सत्पुरुष पर-नींद को हरते नहीं
काव्य सभा के मुख्य अतिथि श्री जगदीश चन्द्र शर्मा जी (अध्यक्ष हिंदी साहित्य कला प्रतिष्ठान दिल्ली) ने रचना से पूर्व अपने अमूल्य वचनों से नवोदित रचनाकारों का पथ प्रदर्शन करते हुए कहा कि रचना करते समय व्यंजनाओं का आलम्ब लेना आवश्यक है परन्तु इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी पर व्यक्तिगत कटाक्ष से बचना चाहिए, जैसे आज के मीडिया चैनल खबर देने की जगह खबर लेने मे लगे हुए हैं … जबकि खबर जनता को लेना चाहिए ….. महाकवि कालिदास के नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम का उद्धरण देते हुए बताया कि किस तरह रचनाकारों को किसी पर तंज किये बिना अपनी बात कहने का प्रयास करना चाहिए… अर्थात धनात्मक और सृजनात्मक दिशा मे रचनाएँ की जाएँ तो उत्तम है… यद्यपि प्रत्येक रचनाकार अपनी रचनाओं के लिए स्वतंत्र है.
मान्यवर श्री जगदीश चन्द्र शर्मा जी ने अपनी सहज लेकिन अंतस को पोसती हुई एक रचना प्रस्तुत की—-
मैंने अपने मित्र से कहा तुम इस जलते दीप को लेकर कहाँ जा रहे हो तुम्हारा घर तो प्रकाश से भरा है….. मेरे अँधेरे घर को इसका प्रकाश चाहिए…… इसे मुझे दे दो … किन्तु अज्ञान के आवरण मे लिपटे मित्र ने कहा….. मै अपने अंतस के अन्धकार को मिटाने के लिए मै इसे गंगा माँ को अर्पित करना चाहता हूँ ……और उसने अपना दीप गंगा की लहरों मे प्रवाहित कर दिया….. देखते देखते एक नहीं दो नहीं असंख्य दीप निष्प्रयोजन ही गंगा की लहरों मे समाहित हो गए और मेरी कुटिया मे अँधेरा है
अंत मे काव्य सभा के अध्यक्ष श्री दीपकशर्मा जी (वरिष्ठ कवि एवं गीतकार) ने सभी कवियों को धन्यवाद देते हुए अपने अशआरो से श्रोताओं को मुग्ध किया—
न हिंदू न सिख ईसाई न मुसलमान हू
कोई मज़हब नहीं मेरा फकत इंसान हूँ
मुझको मत बांटिये कौमों ज़बानों मे
मै सिर से पाँव तलाक हिन्दोस्तान हूँ
यहाँ यह भी उल्लेख करना चाहूँगा कि शोभना वेलफेयर सोसाइटी निर्धन बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं के लिए कार्य करती है… सोसाइटी का कुछ विवरण निम्न प्रकार है -
कार्यालय- २४४/10 त्रिपथ स्कूल ब्लाक मंडावली, दिल्ली
फोन- 011-22474775
श्री अयोध्या प्रसाद वशिष्ठ – संरक्षक
सुश्री शोभना तोमर – अध्यक्ष
श्री सुमित प्रताप सिंह- कोषाध्यक्ष
श्री रंजीत सिंह – संयोजक
Posted via email from हरफनमौला
रोना हज़ार रोते हैं (व्यंहज़ल)
22 अग 2010
by padmsingh
लिखते लिखते सोच रहा था ये क्या लिख रहा हूँ मै ? गज़ल का शिल्प, हास्य का रस, और व्यंग्य की तासीर का मिलाजुला स्वरुप देख कर मन मे आया कि इसे क्या कहूँ .. और फिर शायद एक नयी विधा या शब्द का जन्म हुआ ऐसा लगता है….
व्यंग्य+हास्य+गज़ल=(व्यंहज़ल)
तो व्यंहज़ल अर्ज़ है……..हल्के फुल्के मन से मुस्कुराते हुए स्वीकारिये …
अंतिम शेर संजीदा एहसासों की शिद्दत से अभिव्यक्ति है…
रोना हज़ार रोते रहे देश काल के
फेंके न आस्तीं के संपोले निकाल के
चारों तरफ़ बिछी है सियासत की गंदगी
यारों कदम बढ़ाना जरा देख भाल के
भेजा वही है, सोच वही, आदतें वही
बदले हैं कलर लल्ला ने सिर्फ बाल के
मिलते ही सुकन्या ने हाइ गाइ! यूँ कहा
आसार नज़र आने लगे चाल ढाल के
लहसुन पेयाज़ मसाले का त्याग देखिये
साहब ने मछली खाई तो वो भी उबाल के
कुछ भी न दिया हो विकास ने यहाँ मगर
झुरऊ मज़े लेते हैं सरे-शाम मॉल के
इस दौर फर्ज-ओ-फन की खैर बात क्या करें
ईमान खरीदे गए सिक्के उछाल के
Posted via email from हरफनमौला
भटकती आत्मा से साक्षात्कार (संस्मरण)
कुछ बड़ा होने पर मैंने जाने किस अन्तःप्रज्ञा अथवा सहज बुद्धि के कारण डर से जीतने का मन बना लिया…. मुझे अच्छी तरह याद है कि जब भी मुझे कुंए या ऊंचाई से गिरने जैसे सपने आते… मैंने उसे ध्यान से देखना और स्वीकार करना प्रारम्भ किया… अर्द्धचेतन अवस्था में मैंने अपने आपको कई बार गहरे कुँए में गिर जाने दिया और डरते हुए भी साहस कर के गिरते हुए देखता रहा… किसी साए के दिखने पर भी मैंने उसके प्रति हिम्मत से काम लेते हुए देखता रहता… लेकिन इसकी तैयारियां जागने के दौरान ही करता…कई बार तो प्रतीक्षा भी करता इस तरह के सपने आने की .. अपनी छत की तीन इंच चौड़ी मुंडेर पर कांपते पैरों से लेकिन सप्रयास चलने की कोशिश करता… जानबूझ कर छत से नीचे देखता रहता… या मन ही मन ऐसी परिस्थितियों से लड़ने की कोशिश करता … धीरे धीरे मुझमे हिम्मत आती गयी और इस तरह के सभी सपने आने पूरी तरह से बंद हो गए… अब तो मुझे यदा कदा ही सपने आते हैं.. आज किसी भी अँधेरे, भूत या ऊंचाई आदि के डर से एकदम मुक्त हूँ…. किसी भी अँधेरी सुनसान या भुतहा जगह पर आधी रात चले जाना मेरे लिए मामूली बात है… कई बार तो शर्त लगा कई किलोमीटर दूर भयानक पुरानी खंडहर मंदिरों में रात बारह एक बजे बेहिचक हो कर आया हूँ… पर अब मुझे इन सब से डर नहीं लगता कभी … यद्यपि सतर्कता और सावधानी के प्रति लापरवाह भी नहीं हूँ …. इस तरह के सपनों का कारण कहीं न कहीं असुरक्षा की भावना से सम्बंधित होती है … बच्चों के कोमल मन मे कब कैसी चीज़ें घर कर जाती हैं, माता पिता या परिवार जान भी नहीं पाता.. और न बच्चा उसे अभिव्यक्त कर पाता है … और अकेले घुटता है… बचपन की ये भावनाएं और अनुभव पूरे जीवन उसके साथ चलते हैं और कहीं न कहीं उसके व्यवहार और सोच को प्रभावित करते हैं…
मै घर लौट आया …. पत्नी बच्चे घटना से अनभिज्ञ सो रहे थे … मुझे भी सोचते हुए कब नींद आ गयी पता नहीं… सुबह देर से उठा तो कालोनी और उस से बाहर तक चर्चा फ़ैल गयी थी …. रात मोहल्ले मे चुड़ैल घूम रही थी… किसी ने कहा मेरा दरवाजा खटखटाया… किसी ने कहा मेरे घर प्याज रोटी मांग रही थी … जितने मुँह उतनी तरह की बातें …. पर मुझे अब भी ग्लानि होती है कि किसी की बेटी इस तरह से बेसहारा घूम रही थी… मै प्रयास करता तो शायद उसके घर तक पहुंचा सकता था ….
Posted via email from हरफनमौला
अजब गज़ब का सोफ्टवेयर (तकनीकी पोस्ट)
09 अग 2010
by padmsingh in तकनीक, पद्म, पद्मसिंह, पद्मावलि Tags: अजब गजब सोफ्टवेयर, टीम व्यूअर, सुदूर नियंत्रण [Edit]
कई मित्र पहले मुझसे किसी कम्प्युटर की समस्या के सम्बन्ध में फोन पर पूछते तो फोन पर किसी प्रक्रिया को बताने में बहुत परेशानी होती थी …. और मुझे यह भी पता नहीं चलता कि उधर बैठा मित्र वास्तव में कैसे मेरी बात समझ रहा है ….इसी बीच मुझे एक सोफ्टवेयर मिला जिसने मेरी इस तरह की तमाम परेशानियों का हल दिया .. आज आपको इसी सोफ्टवेयर के बारे में बताना चाहता हूँ …’
ये सोफ्टवेयर है “टीम व्यूअर” … टीम व्यूअर अपने आप में दूर बैठ कर कम्प्युटर सपोर्ट और अभिव्यक्ति का बहुत अच्छा और उपयोगी सोफ्टवेयर है … इस सोफ्टवेयर की खास बात है कि इसके माध्यम से आप लाखों किलोमीटर दूर भी बैठ कर किसी के कम्प्युटर पर हो रही हर हलचल को तत्काल देख सकते हैं…जैसे आप उसी कम्प्युटर पर बैठे हों … कुछ बिंदु इस सोफ्टवेयर के बारे में और -
- दुनिया के किसी कोने में बैठ कर आप किसी मित्र के कम्प्युटर पर चल रही गतिविधि को अपने स्क्रीन पर लाइव देख सकते हैं,
- दूर अपने किसी मित्र को अपने कम्प्युटर पर हो रही हर हलचल को तत्काल(लाइव) दिखा सकते हैं. इसमें लाइव प्रेजेंटेशन या फोटो फिल्म कुछ भी हो सकता है …
- दूर बैठ कर किसी मित्र के कम्प्युटर को आप ऐसे ही आपरेट कर सकते हैं जैसे आप अपना कम्प्युटर यूज कर रहे हों. दूर बैठ कर अपने मित्र के कम्प्युटर को निर्देश दे सकते हैं और हर तरह की सपोर्ट दे सकते हैं.
- इसके माध्यम से किसी मित्र या पार्टनर से लाइव वोइस चैट अथवा वीडियो चैट कर सकते हैं
- अपने कम्प्युटर का नियंत्रण किसी मित्र को दे सकते हैं, अथवा किसी मित्र कम्प्युटर का नियंत्रण अपने हाथों में ले सकते हैं.
- अपने कम्प्युटर से मित्र के अथवा मित्र के कम्प्युटर से अपने कम्प्युटर पर किसी फ़ाइल को ट्रांसफर कर सकते हैं … इतनी आसानी से जैसे आप अपने कम्प्युटर पर एक जगह से दूसरी जगह फ़ाइल ट्रांसफर करते हैं
- वेबकैम और हेडफोन आदि के साथ आप साथ साथ बैठ कर एक ही कम्प्युटर पर किसी कार्य को करने जैसा सुखद एहसास पा सकते हैं.
- दुनिया के किसी कोने में बैठ कर आप पहले से निश्चित परमानेंट पासवर्ड के द्वारा अपना कम्प्युटर ऐसे आपरेट कर सकते हैं जैसे सामने ही बैठे हों.
टीम व्यूअर डॉट कोम् पर साइनअप कर के आप अपने मित्रों और पार्टनर्स की लिस्ट भी बना सकते हैं जिसमे उनका आईडी आदि सुरक्षित रख सकते हैं …और जब चाहें आमने सामने मिलिए अपने मित्रों से,…
किसी भी तरह की यथासंभव सहायता के लिए तत्पर …
शुभकामनाओं सहित आपका पद्म सिंह
टीम व्यूअर आईडी- 148 946 444
(यद्यपि बहुत से मित्र इसके बारे में जानते होंगे लेकिन ये उनके लिए है जो इसके बारे में नहीं जानते… नए ब्लोगर्स अथवा कम्प्युटर इस्तेमाल करने वालों को सपोर्ट करने के लिए सोफ्टवेयर उपयोगी हो सकता है.)Posted via email from हरफनमौला
हंसना मुस्काना खुश रहना झूठा लगता है
हंसना मुस्काना खुश रहना झूठा लगता है
01 अग 2010
हंसना मुस्काना खुश रहना झूठा लगता है
जैसे कोई सपना थक कर टूटा लगता है
महल चुने, दीवारें तानी चुन चुन जोड़ा दाना पानी
लाखों रिश्तों में अपनी सूरत ही लगती है अनजानी
कर्तव्यों की कारा में मन का पंछी बिन पंख हो गया
अनजाने अनचाहे पथ पर चलते जाना भी बेमानी
मन उपवन का नकली हर गुल बूटा लगता है
हंसना मुस्काना खुश रहना झूठा लगता है
सोने की दीवारें भी बंदी की पीर न हर पाती हैं
यादों की दस्तक पर, अनजाने आँखें भर आती है
पीछे मुड़ कर देखो तो कल अभी अभी सा लगता है
आगे जीवन के दीपक की बाती चुकती जाती है
आईने का मंजर लूटा लूटा लगता है
हंसना मुस्काना खुश रहना झूठा लगता है
जीने का पाथेय चुकाना होता है हर धड़कन को
साँसे देकर पल पल पाना होता है जीवन धन को
जीना भी व्यापार हुआ पाना है तो देना भी है
जैसे तैसे समझाना पड़ जाता है पागल मन को
ऊपर वाले का भी खेल अनूठा लगता है
हंसना मुस्काना खुश रहना झूठा लगता है
Posted via email from हरफनमौला
आज़ाद पुलिस (संघर्ष गाथा –३)
19 जुला 2010
by padmsingh in पद्मसिंह, पद्मावलि, सरोकार Tags: Azad police, आज़ाद पुलिस, गाज़ियाबाद, नंदग्राम, पुलिस, ब्रह्मपाल [Edit]
ब्लॉगिंग केवल आभासी नहीं रह गयी है, इस बात का अनुभव मुझे उसी दिन से हो गया था जिस दिन मैंने अपनी पोस्ट “आज़ाद पुलिस” लिखा… पोस्ट नीरस थी और किसी के व्यक्तिगत
जीवन को प्रभावित नहीं करती थी इस लिए प्रतिक्रियाएँ भले ही कम मिलीं हों .. लेकिन जो भी प्रतिक्रियाएँ मिलीं वो मेरी पोस्ट और लेखन को सार्थक करने के लिए पर्याप्त थी. पोस्ट पढ़ कर यूँ तो कई लोगों की प्रतिक्रियाएँ आईं लेकिन इस सम्बन्ध में श्री जय कुमार झा जी की मेल मुझे लगातार आती रही…उन्होंने बार बार ब्रह्मपाल जी से मिलने की उत्कट इच्छा व्यक्त की … कई बार मोबाइल पर बात चीत होने के बाद दिनांक18/07/2010 को ब्रह्मपाल जी से मुलाकात करने की बात तय हो गयी …झा जी नरेला से आ रहे थे .. तय समय पर मैंने उन्हें आनंद विहार बस अड्डे से लिया और ब्रह्मपाल से मिलने निकल पड़े… यहाँ मै यह उल्लेख भी करना चाहता हूँ कि श्री जय कुमार झा जी hprd से जुड़े हुए हैं और ईमानदारी और मानवता के प्रति कृतसंकल्प हैं … दिल्ली ब्लॉगर मीट में जो लोग रहे होंगे वो मिल चुके होंगे … गर्मी इतनी भीषण, कि दोनों ही पसीने से पूरे के पूरे भीग चुके थे… और आधे घंटे में हम ब्रह्मपाल जी(आज़ाद पुलिस) के पास थे ..
ब्रह्मपाल जी हमसे मिल कर बहुत खुश लग रहे थे और बोलते हुए भावुक हो उठे कि पन्द्रह वर्षों में पहली बार आपकी तरह कोई बैठ कर मेरी बातें सुनने आया है मेरे पास … बीच में कई लोग जुड़े भी लेकिन खोखले आश्वासन के अलावा आजतक कुछ नहीं मिला कभी … अब मुझे कुछ मिले न मिले लेकिन इतना तो संतोष है कि मेरी बात किसी के कानों तक पहुंची तो सही ….अभी तो बहुत कुछ और बताने और दिखाने को था आज़ाद पुलिस के पास …हजारों पत्रों की प्रति और रिक्शा चला कर कमाए हुए पैसे से सैकड़ों रजिस्ट्रियों की रसीद देख कर कोई इस इंसान को जुनूनी ही कहेगा… चिट्ठियों और पेपर कटिंग्स से भरी दूसरी गठरी खोलने से पहले ही हमने उन्हें मना कर दिया और आगे भी मिलते जुलते रहने का आश्वासन दिया …
इतनी भीषण गर्मी के बावजूद ब्रह्मपाल के पास एक अदद टेबल फैन तक नहीं था … अन्य किसी सुविधा की क्या बात करना … जमीन पर सोना, अपने दो बेटों और पत्नी के साथ …. एक अदद रिक्शा ही जीविका और संघर्ष दोनों के लिए आर्थिक श्रोत है … अन्य कहीं से कोई सहायता नहीं मिली कभी … हाँ अगर कुछ है ब्रह्मपाल जी के पास तो वो है भ्रष्टाचार और शासन की लापरवाही के विरूद्ध लोहा लेने की उत्कट इच्छा शक्ति और परमार्थ कुछ कर गुजरने का जूनून …
किसी भी तरह के सहयोग के सम्बन्ध में इस पर मेल करना न भूलें …
azadpolice@gmail.com
Posted via email from हरफनमौला
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