सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

छोटा सा बडप्पन

जब भी उधर से गुजरता हूँ , नज़रें ढूंढती रह जाती हैं उसे
लेकिन फिर कभी नहीं दिखा मुझे वहां पर
‎प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश  शहर का  रेलवे स्टेशन..February ‎24, ‎2006 दोपहर के बाद का समय था...हलकी धूप
थी. गुलाबी ठण्ड में थोड़ी धूप अच्छी भी लगती है और ज्यादा धूम गरम भी लगती है ... स्टेशन पर बैठा इंतज़ार कर रहा था और ट्रेन लगभग एक घंटे बाद आने वाली थी ..... बेंच पर बैठे बैठे जाने क्या सोच रहा था ...
चाय ..... चाए .....की आवाजें या फेरी वालों की आवाजें रह रह कर मेरी तन्द्रा तोड़ देतीं ........वहीँ स्टेशन पर पड़े दानों के पीछे चार पांच कौए आपस में झगड़ने का उपक्रम कर रहे थे ...जिनके खेल को मै बड़ी तन्मयता से बड़ी देर से देख रहा था ... इसी बीच मुझे किसी के गाने की आवाज़ ने चौकाया ..... कोई गा रहा था दूर प्लेट फार्म पर ... आवाज़ तो अच्छी नहीं थी पर जो कुछ वो गा रहा था उसके शब्द मुझे उस तक खीच ले गए ...
कद लगभग ढाई से तीन फुट के बीच ही था उसका ... पर उम्र लगभग ३० के आस पास रही होगी
उत्सुकता वश बहुत से लोग उसके करीब आ गए और गाना सुनते रहे ,....
किसी ने एक दो रूपया दिया भी उसे .... पर उसका गाने का ढंग और उसके गीतों  का चयन मुझे छू  रहा था 
कुछ देर बाद जब थोड़ी फुर्सत सी हुई तो मैंने उत्सुकता वश उसे अपने पास बुलाया और बात करने लगा..... 
बताया कि मेरा घर यही प्रतापगढ़ के पास चिलबिला स्टेशन के पास ही है
माँ बाप का इकलौता हूँ ....बाबा रहे नहीं ..... अम्मा हैं
अब मेरी हालत तो देख ही रहे हो बाबू
और कोई काम तो कर नहीं सकता सिवाय इस के,.......
मुझे गाने का बहुत शौक था तो गाने लगा हूँ बचपन से ही
..........मैंने कहा आज कल तो विकलांगों के लिए सरकार बहुत कुछ कर रही है
.......... सरकार क्या करेगी ज्यादा से ज्यादा एक साइकिल देगी या फिर रेल का किराया कम कर देगी और कुछ कर नहीं सकता पढ़ा लिखा भी नहीं हूँ
.................................................
एक बार सर्कस वाले आये थे कहने लगे चलो हमारे साथ हम तुमको पैसे भी देंगे और देश बिदेस घूमना हमारे साथ
....... फिर?
पर साहब मेरी माँ का क्या होगा यहाँ पर ... बाबा(पिता) रहे नहीं.......
अम्मा बीमार रहती हैं ..... दमे की मरीज़ हैं तो .......
अब उनकी देख रेख मै नहीं करूँगा तो कौन करेगा .....कहती हैं तू चला जा सर्कस में ..... पर बाबू जी ....... अम्मा को छोड़ कर जाने का दिल नहीं करता ....उसकी बातों में अम्मा के लिए प्रढ़ अपनापा और संवेदना झलक रही थी
बहुत मयाती हैं हमका अम्मा
और फिर औलाद किस दिन के लिए होती हैं........
जौ हमहीं चले जायेंगे छोड़ कर ....... तो और कौन साथ देगा ?
आज देर होई गई आवे मा....... अम्मा की तबियत ज्यादा खराब होई जात है  सर्दी मा..!!
आज तो हमरो तबियत कुछ ढीली है .......मगर का करी .... दवाई ले जाय का है ...... यही बरे आवे का पड़ा( इसी लिए आना पडा)
.....दिन भर में कितना ?
अरे दिन भर में कितना का ....... कभी 20-30 रुपिया तो कभी भीड़ भई तो 70-80 रुपिया भी होई जात है दिन भर मा .........
पर उसके स्वभाव में लाचारी नहीं दिखी मुझे ....... एक चमक थी आत्म विश्वास की ......
मैंने ज्यादा पूछ ताछ करना ठीक नहीं समझा ......
मैंने कहा मेरे लिए एक दो गाने गाओगे?
बोला हाँ साहब क्यों नहीं
फिर अपने सोनी के मोबाइल फोन से उसका गाना रिकार्ड किया ......
जो कुछ हो सका दिया भी .....
पर अपनी माँ के लिए उस के भाव और बातें आज भी याद आती हैं
जब भी उधर से गुजरता हूँ , नज़रें ढूंढती रह जाती हैं उसे
लेकिन फिर कभी नहीं दिखा मुझे वहां पर
कभी कभी लगता है हम पढ़ लिख कर ...... सर्विस, व्यापार के चक्कर में अपनों से और अपने घर से इतनी दूर हो गए हैं ...
पैसे, उपहार ... चाहे जो भेज दें पर अपने बड़ों के पैर छूने की अहक इस "बनावटी बडप्पन" में कहीं घुट जाती है...

मै ये भी आपको बताना चाहूँगा कि .... मैंने उस से ये भी कहा था कि मै तुम्हरी बात अगर हो सका तो कहीं आगे ले जाऊँगा और तुम्हरी गाने की कला का कोई कद्र दान ढूँढूँगा ...... पर मेरे पास कोई ऐसा माध्यम नहीं था ...इस ब्लॉग के माध्यम से आज फिर सक्षम लोगों से गुज़ारिश करना चाहूँगा कि यदि आप कुछ कर सकें तो मै दोबारा उसे ढूँढने की कोशिश करूँगा ...
उसने जो गाया मै उस को लिख भी देता हूँ
हो सकता है कोई इस पोडकास्ट को सुन न पाए --

१- पढ़ने को मेरा उसने खत पढ़ तो लिया होगा
हर लफ्ज़ मगर कांटा बन बन के चुभा होगा
कसिद् ने खुशामद से क्या क्या न कहा होगा
शायद किसी भंवरे ने मुह चूम लिया होगा
शबनम के टपकने से क्या कोई कली खिलती
बेटा किसी बेवा का जब दूल्हा बना होगा
शादी में उस माँ का आंसू न रुका होगा
धनवान कोई होता तो धूम मची होती
निर्धन का जनाज़ा भी चुपके से उठा होगा
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२-
सर झुकते नहीं देखा किसी तूफ़ान के आगे
जो प्रेमी प्रेम करते हैं श्री भगवान के आगे
लगी बाजार माया की इसी का नाम है दुनिया
यहाँ ईमान बिक जाता फकत एक पान के खाते
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2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी लगी रचना। शायद ही कोई कद्रदान उसे मिलेगा ऐसी प्रतिभायें बेचारी हर गली मे भटक रही हैं मगर कोई उन्हे पूछने वाला नही। शायद सभी अपनी अपनी आपाधापी मे मजबूर है? शुभकामनाये

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  2. शायद कोई इस क्षेत्र में काम करने वाला उसका भला करे...शुभकामनाएँ.

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