मंगलवार, 16 मार्च 2010

पतझड़ के बहाने

कई दिनों से कुछ लिखने का मन नहीं होता .... मन में वैराग्य सा है ,....
कोई हलचल नहीं होती .... पतझड़ का मौसम है एक तरफ जहां पुराने पत्र अपनी
आयु पूरी कर अधोमुख धाराशाई हैं वही नए किसलय नूतन सृजन का सन्देश दे रहे
हैं ... सोचता हूँ क्या सन्देश देना चाहती है सृष्टि हमें इस मौसम के
बहाने ... नव सृजन का .. या पुरा पतन का ... या इन दोनों का .... समय की
नियति का ...ऐसे में गीता का श्लोक अनायास ही सामने खिंच आता है
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय।
नवानि गृह्णाति नरोsपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि।
अन्यानि संयाति नवानि देही।।

आज इसी परिदृश्य में अपनी एक पुरानी रचना पुनः प्रस्तुत करना चाहता हूँ -

विधना बड़ी सयानी रे
जीवन अकथ कहानी रे
तृषा भटकती पर्वत पर्वत
समुंद समाया पानी रे……..

दिन निकला दोपहर चढ़ी
फिर आई शाम सुहानी रे
चौखट पर बैठा मै देखूं
दुनिया आनी जानी रे……..

रूप नगर की गलियाँ छाने
यौवन की नादानी रे
अपना अंतस कभी न झांके
मरुथल ढूंढें पानी रे……..

जो डूबा वो पार हुआ
डूबा जो रहा किनारे पे
प्रीत प्यार की दुनिया की ये
कैसी अजब कहानी रे……..

मै सुख चाहूँ तुम से प्रीतम
तुम सुख मुझसे चाहोगे
दोनों रीते दोनों प्यासे
आशा बड़ी दीवानी रे…….

तुम बदले संबोधन बदले
बदले रूप जवानी रे
मन में लेकिन प्यास वही
नयनों में निर्झर पानी रे……….

Posted via email from हरफनमौला

1 टिप्पणी:

  1. जो डूबा वो पार हुआ,
    डूबा जो रहा किनारे पे
    सब कुछ कह डाला इन दो पंक्तियों में
    कबीर ,ग़ालिब ,नानक उनसे पहले और उनके बाद
    सभी ऩे प्यार और प्यार के प्रभाव को इसी तरह जाना,पहचाना और लिखा ,मन में फिर प्यास वही रहेगी ना बाबा !
    प्यार के लहराते सागर के सामने खड़ा हो कर भी जिसने इसका रस पान नही किया वो प्यासा,उसकी आत्मा प्यासी अतृप्त तो रहेगी ना
    भटकना ही फिर मृग को अथाह मरु में
    तभी तो कहते हैं 'पार उतरेगा वो ही खेलेगा जो तूफ़ान से'
    ये सुकूं देने वाला,पार लगाने वाला तूफान है जो मुक्ति देता

    2010/3/16

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