बुधवार, 13 अप्रैल 2011

धूप ……. पद्म सिंह

यह रचना सर्दियों में लिखी गयी थी…पद्मावलि पर प्रकाशन भी किया गया था… लेकिन इस समय इसकी प्रासंगिकता कहीं बेहतर लग रही है इसी लिए ढिबरी पर इसका पुनः प्रकाशन कर रहा हूँ….













पूरे दिन का सवेरे मज़मून गढ़ जाती है धूप

एक सफहा जिंदगी का रोज़ पढ़ जाती है धूप

मुंहलगी इतनी कि पल भर साथ रह कर देखिये

पाँव छू, उंगली पकड़ फिर सर पे चढ जाती है धूप

लांघती परती तपाती खेत, घर ,जंगल, शहर

इस तरह से रास्ते पे अपने बढ़ जाती है धूप

अब्र हो गुस्ताख, शब हो, या शज़र चाहे ग्रहन

सब के इल्जामात मेरे सर पे मढ जाती है धूप

देख सन्नाटा समंदर पे हुकूमत कर चले

शहर से गुजरी कि बित्ते में सिकुड़ जाती है धूप

पूस में दुल्हन सी शर्माती लजाती है मगर

जेठ में छेड़ो तो इत्ते में बिगड़ जाती है धूप

धूप 16/01/2010 पद्म सिंह ----9716973262

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया...

    आपको राम नवमीं की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ.

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  2. सुंदर लेखन के लिये आपको साधुवाद

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  3. ढिबरी के खुले झरोखे
    देखे
    धूप के रूप अनोखे ।
    ..वाह!

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  4. 'मुंहलगी इतनी कि पल भर साथ रह कर देखिये
    पाँव छू, उंगली पकड़ फिर सर पे चढ जाती है धूप.'

    ...वाह! क्या अंदाज़ है.....धूप को रदीफ़ बनाकर ज़दीद शायरों ने कई ग़ज़लें कही हैं. आपकी ग़ज़ल उनसे किसी मायने में कम नहीं है. अच्छे और दमदार अशआर हैं आपकी ग़ज़ल में..बधाई!
    ---देवेंद्र गौतम

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  5. बहुत खूब ..धूप पर सुन्दर मुसलसल गज़ल|

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  6. मुंहलगी इतनी कि पल भर साथ रह कर देखिये
    पाँव छू, उंगली पकड़ फिर सर पे चढ जाती है धूप
    बड़ी प्यारी पंक्तियाँ!

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