बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

बस यही रात सोचने के लिए बाकी है

कल उत्तर प्रदेश मे चुनावी घमासान की शुरुआत है... फेसबुक पर अनगढ़ चिन्तन  करते करते कुछ अनगढ़ विचार पंक्तियों मे उतर आए....  पोस्ट के कमेन्ट के रूप मे भाई सलिल वर्मा जी ने कविता को आगे बढ़ाया और एक रचना ने रूप पाया... जिसे ब्लॉग पर डालने का लोभ संवरण नहीं कर सका...यह कविता मेरी और सलिल वर्मा जी के विचारों का फ्यूजन है...


बस यही रात सोचने के लिए बाकी है
कल सुबह लाने की अपनी ही ज़िम्मेदारी है
एक तरफ सुबह का उजाला है
एक तरफ स्याह अन्धेरे की हवस तारी है
वक्त क्या वेश धर के आएगा
कोई बिरला ही समझ पाएगा
असली चेहरा कहीं छुपा होगा
एक मुखौटा ही मुस्कुराएगा
कुछ समझ पाने की दुश्वारी है
बस यही रात सोचने के लिए बाकी है
कल सुबह लाने की अपनी ही ज़िम्मेदारी है ...

रात सोते में ही इस शहर के लोग,
अपनी आँखों को गंवा बैठे हैं
सुबह जब निकलेगा सूरज तो नहीं जानेंगे
उनके आगे ये अन्धेरा है या वो नींद में हैं
आँख पर पर्दा पड़ा है जो ज़ात मजहब का
या कि केसरिया-सब्ज़ परचम का
उनको मालूम कहाँ अंधे हैं कि परदे हैं.
कौन समझाए भला  कौन उन्हें समझाए,
बस यही रात सोचने के लिए बाकी है
कल सुबह लाने की अपनी ही जिम्मेदारी है!!

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