शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

पूरा दिन छूँछ घूमने के बाद रात में जब लिखने बैठा तो मन में एक गजल का मिसरा घूम रहा था..... बैठते ही देखता हूँ कि मोनिटर के किनारे से ब्लॉग की दुनिया का जाना माना एक मूछ वाला चेहरा नमूदार हुआ और हाल चाल पूछ अंतर्ध्यान हो गया .... फिर क्या था... सारी गज़ल कहीं खो गयी और दिमाग के अँधेरे कोनों से मूछें ही मूछें घूरने लगी ...उत्सुकता बलवती हुई.... सो लिखना पड़ा ..आपने शराबी फिल्म का वो डाइलोग तो ज़रूर सुना होगा..... मूछें हो तो नत्थू लाल जैसी वर्ना न हों (नत्थू लाल और उनकी मूछों का अनुपात गौर तलब है) पर उनको ऐसी मूछें प्राप्त थी तो थीं ...अब आज के ज़माने में मूछ कोई सर्वप्राप्य गैजेट तो है नहीं .. न किसी दूकान में न किसी मॉल में मिलती है मूंछें ...ये तो भारत से गायब हो रहे बाघों की तरह आज के चेहरों से विलुप्त होने वाली प्रजाति में शामिल होने वाली ही थी, अगर कुछ मुछंदरों ने अभी भी अपनी आन पर खेल कर इनकी रक्षा न की होती... मूछों की महिमा अपरम्पार है ... इतिहास पर अगर नज़र डालें तो शायद सब से पहली मूछ आदि देव शंकर जी को उपलब्ध थी ... मूछें तो वास्तव में कुछ गिने चुने देवों को ही प्राप्त थी ... युग धीरे धीरे बदलता रहा पर मूछों की महिमा सदा ही अपना महत्व रखती रही...भारत तो मूछों के मामले में धनी रहा है राजपूताने में इसे आन और शान का प्रतीक माना जाता रहा है ... किम्वदंतियां हैं कि मूछें चेक या रुक्के का काम भी किया करती थी मूछों का एक बाल भी हजारों के चेक से ज्यादा महत्व रखता ... बाउंस होने का चांस ही नहीं ... इसी मूंछ की महिमा पर कवि रूप चंद्र शाश्त्री 'मयंक' जी ने लिख डाला "आभूषण है बदन का रक्खो मूंछ संवार , बिना मूछ के मर्द का जीवन है बेकार" या फिर वीरता के लिए विख्यात राजपूत राजाओं के काल में कवियों के मुख से मूछों का महत्व समष्ट दिखाई देता है -जाहि प्रान प्रिया लागिन सौ बैठे
लिज धाम। जो
काया पर मूछ वाई सो कर हैं संग्राम।। चाहे नत्थू लाल की मूछें हो या चार्ली चैप्लिन की ... ये सदा ही चर्चा का बिषय रही हैं और अपने साथ साथ अपने मालिक को भी प्रचारित, चर्चारित, और खर्चारित करती रही हैं ..अमेरिका में एक स्टडी में पता चला कि मूंछ वाले अमेरिकन 4.3 क्लीन शेव वालों से और बिना दाढ़ी वालों से 8.2 फीसदी ज्यादा पैसे कमाते है... लेकिन स्टडी में यह भी उल्लेखनीय है कि मूछ रखने वाले खर्चीले भी ज्यादा होते हैं ... उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा भी कुछ होनहार मुछंदर पुलिस कर्मियों को उनकी मूंछ की रक्षा और रख रखाव के लिए भत्ता दिया जाता रहा है.... मूछों को सदा ही आन बान शान और सम्मान के प्रतीक के रूप में देखा जाता रहा लिए हमारे समाज में कुछ लोकोक्तियाँ भी प्रचलित है जैसे – मुच्छ नहीं तो कुच्छ नहीं, मूछ की पूछ बाक़ी सब छूछ, मूछ का बाल, मूंछें मुडाना, मूछों पर ताव देना,मूछों की लड़ाई इत्यादि ... वैसे क्लीन शेव के इस ज़माने में मूछों का प्रचलन घटा है लेकिन उपयोगिता और महत्व अपनी जगह बरकरार है ..जैसे.. मेरे अनुमान से शरीर में खिलने वाली एक मात्र चीज़ "बांछें" शायद मूछों में ही छुपी होती हैं, मूछें कैटेलिटिक कनवर्टर वाला एयर फ़िल्टर है, इस की मदद से अँधेरे में टटोल कर ही पता कर सकते हैं कि मर्द है कि औरत, मूछें मर्दानगी का थर्मामीटर हैं(...?), मूछें साहस का संचार करती हैं, और तो और रमणियाँ ऐसे प्राणी को बाबा कह कर सम्मानित करती हैं सो अलग एक अंतिम फायदा और... जब उम्र का तीसरा पड़ाव आने को हो तो मूछ हटा दो फिर २० साल पीछे. पर आज मूंछ की महिमा समझता कौन है, आज मूंछों को जितनी ज़िल्लत देखनी पड़ी है उतनी किसी युग में नहीं, नए युग के फैशन में जब कन्याएं जींस शर्ट पहनने लगी हैं और क्लीन शेव अरु लंबे बालों का प्रचलन बढ़ा है ...तो देख कर सहज ही ये पहचाना भी मुश्किल हो गया है कि तीनों में से कौन सी योनि का मनुष्य है, मूछें तो गायब होने के कगार पर हैं ही साथ साथ लोगों की प्रतिबद्धता, आन, शान और अभिमान भी क्षीण हुआ है, वैसे अब दिल्ली हाईकोर्ट ने भी इजाज़त दे दी है, जल्दी ही मूछ वाली भाभियाँ आने लगेंगी, ऐसे में आपका बिना मूछ के रहना कहाँ तक उचित है, इस लिए एक सामाजिक प्राणी होने के नाते आप को सलाह है कि मूछ के महत्व को समझें और अपनी पूँछ बढ़ाएं और बढ़ने तक खूब तेल लगाएं और न हो तो स्पेयर में खरीद कर लाएं (वैसे बिना किसी लालच के बता देना चाहता हूँ कि दिल्ली के लाल किले के सामने मूछें दाढ़ी के साथ केवल १० रुपये में मिल जाती हैं, आर्डर बुकिंग के लिए संपर्क करें)... पद्मसिंह (गाजियाबाद)

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

पहला प्यार

मेरे दिल की राज कुमारी मेरी प्राणाधार

कैसे कह दूँ तुमसे तुम हो मेरा पहला प्यार

कैसे कह दूँ तुम मेरी पहली चाहत हो

भूख प्यास हो, दर्द और तुम ही राहत हो

कैसे कह दूँ तुम मुझको सब से प्यारी हो

क्यों कह दूँ तुम सारी दुनिया से न्यारी हो

क्यों अपनी झूठी यारी में झूल रही हो

सारी दुनिया से प्यारी को भूल रही हो

मान रहा हूँ मैंने तुमको प्यार किया है

दिल के अरमानों का भी इज़हार किया है

कुछ पल मैंने तेरे संग में काट लिया है

मैंने उसका प्यार तुम्हे भी बाँट दिया है

तुम मुझको छलिया आवारा कह सकती हो

तुम मुझको बेघर बंजारा कह सकती हो

पर तुम मेरा पहला प्यार सुनो तो जानो

तुम भी मेरी प्रेम धार में बह सकती हो

उसके साथ कई सालों तक मै सोया हूँ

उसके साथ हंसा हूँ उसके संग रोया हूँ

मिल जाती तो साथ चिपट कर मै सोया हूँ

बिछड गयी तो बिलख बिलख कर मै रोया हूँ

बहुत दिनों तक दो शरीर एक जान रहे थे

दुःख सारे सुख सारे हमने साथ सहे थे

बहुत सताया था हमने उसको यारी में

सेवा मैंने बहुत कराई बेगारी में

उसका यश तो वेद पुराण बखान रहे है

उसकी रौ में बाइबिल और कुरआन बहे है

उसने मेरी खातिर अपना सब छोड़ा है

उसकी खातिर जो भी कर दूँ वो थोडा है

वो जग में अस्तित्त्व बोध की निर्माता है

उसका मेरे जीवन से गहरा नाता है

तुम पूछोगी ये कैसा अद्भुत नाता है

मै बालक हूँ उसका वो मेरी माता है

मेरे दिल की राजकुमारी मेरी प्राणाधार

देखो मेरी माता ही है मेरा पहला प्यार

जिसको मेरा सब अर्पण है जिसमे मेरी जाँ है

मेरा पहला प्यार हमारी अपनी माँ है

उसने मुझको कई साल तक साथ सुलाया

उसने हंस कर उसने रो कर मुझे रुलाया

बचपन में मै उसके साथ चिपट सोता था

दूर गई तो बिलख बिलख कर मै रोता था

नावें माह तक दो शरीर एक जान रहे थे

सुख सारे दुःख सारे हमने साथ सहे थे

बहुत सताया था मैंने उसको यारी में

सेवा मैंने बहुत कराई बेगारी में

मै अपने दिल को कैसे समझा पाऊंगा

माँ का क़र्ज़ कभी भी नहीं भुला पाऊंगा

पलकों के झूले में तुम्हे झूला सकता हूँ

पर प्रथम प्यार को कैसे कभी भुला सकता हूँ



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क्या मांगता हूँ ... एक गज़ल

क्या मांगता हूँ इसकी मुझको खबर नहीं

या मेरी दुआओं का ही कोई असर नहीं

थोड़ी सी ख़लिश ने ही मरासिम मिटा दिए

दिवार-ए-अना इश्क में थी लाज़मी नहीं

फलदार था दरख्त बुलंदी भी थी बहुत

गुज़रे बहुत मुसाफिर ठहरा कोई नहीं

दुनिया को जीत पाने का जज्बा तो है मगर

बेकार है दिल जीतने का गर हुनर नहीं

जब टूट के मिला तो गरजमंद सा लगा

अब फासले पे कहते हैं मेरी फिकर नहीं

महफ़िल में रहा चर्चा सभी खासो आम का

अफ़सोस मेरा नाम रकीबों में भी नहीं

सोमवार, 4 जनवरी 2010

पाती(पुनर्प्रकाशन)

पाती के संग बहते आंसू
पहुचे तेरे पाँव में
परदेसी परदेश छोड़ कर
वापस आ जा गांव में

दिल में लावा उबल रहा है
प्यासे रेगिस्तान है
कुछ बिरहा की आग सताए
कुछ मेरे अरमान है
मुझे झुलसते छोड़ बेदर्दी
जा बैठे तुम छाँव में
परदेसी परदेश छोड़ कर
वापस आ जा गांव में
छोड़ा क्यों साथ मेरा मांझी
दुःख के सागर की बाँहों में
तुम उड़े प्रीति का पिंजरा ले
मै बंधी पड़ी थी आहों में
टूट गया पतवार धैर्य का
छेद हो गए नाव में
परदेसी परदेश छोड़ कर
वापस आ जा गांव में

कुछ घर से कुछ बाज़ारों से
कुछ गलियों से चौबारों से
भेडिये झांकते है अक्सर
इज्ज़त के ठेकेदारों से
कुछ से बच कर बच पाई हूँ
कुछ छिपे खड़े है दांव में
परदेसी परदेश छोड़ कर
वापस आ जा गाँव में

रविवार, 3 जनवरी 2010

नज़र की भाषा अदाओं का गणित

रात थी चांदनी सुहानी भी
लब पे थी अनकही कहानी भी

दिल में थी पाक मोहोब्बत की महक
मन के कोने में बेईमानी भी

वैसे तो चेहरे पे सब लिक्खा है
कुछ तो ज़ाहिर करो ज़ुबानी भी

नज़र की भाषा अदाओं का गणित
हल भी करता हूँ तर्जुमानी भी

फिर नयी बात ने दिया नश्तर
यूँ तो भूली न थी पुरानी भी

रेत सी उम्र फिसलती जाए
और सुलझे नहीं कहानी भी

ये जो दुनिया से कह रहा हूँ मै
वो किसी खास को सुनानी थी

जोश-ओ-मस्ती,बुलंदी-ए-ख्वाहिश
वाह क्या चीज़ है जवानी भी


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