गुरुवार, 5 जुलाई 2012

गज़ल

फिर से घनघोर घाटा छाई है अमराई मे
कहाँ हो आन मिलो शाम की तनहाई मे

विरह की आग पे छींटे न दे अरे बादल
कहीं धुआँ न उठे फिर कहीं रुसवाई मे

चाँद बेज़ार भटकता रहा सरे मंज़र
चाँदनी खोई बादलों की तमाशाई मे

रूठने और मनाने को बहुत हैं मौसम
आज तो चूड़ियाँ मचलने दो कलाई मे

पद्म खिलने लगे हैं झील मे कंवल ऐसे
जैसे केसर का रंग घुल गया मलाई मे

-.... पद्म सिंह- 04-07-2012

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