मंगलवार, 30 मार्च 2010

खयालों के परिंदे इस लिए आज़ाद रखता हूँ

जफा की धूप में अब्र-ए-वफ़ा की शाद रखता हूँ

इसी तरहा मोहोब्बत का चमन आबाद रखता हूँ

 

छुपा लेता हूँ मै अक्सर तुम्हारी याद के आंसू  

यही थाती बचा कर अब तुम्हारे बाद रखता हूँ

 

मै अपनी जिंदगी के और ही अंदाज़ रखता हूँ

अना को भूल जाता हूँ फ़ना को याद रखता हूँ

 

कभी चाहत की धरती पर गजल के बीज बोये थे

फसल शादाब रखने को दिले बर्बाद रखता हूँ

 

कि उनकी बज्म में हस्ती हमारी बनी रह जाए

कभी मै दाद रखता हूँ कभी इरशाद रखता हूँ

 

हमारे बीच की अनबन, सुलगती रह गयी ऐसे

कभी वो याद रखते हैं कभी मै याद रखता हूँ

 

कहाँ से कब नयी मंजिल का रस्ता खोज ले आये

खयालों के परिंदे इस लिए आज़ाद रखता हूँ

 

 

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शनिवार, 27 मार्च 2010

एक हज़ल (खतरनाक सी)

मित्रों आप लोगों को हमेशा लगता था कि इस ब्लॉग पर सीरियस और दार्शनिक
रचनाएं भरी रहती हैं
तो मैंने सोचा क्यों न आज कुछ नया प्रस्तुत किया जाय आपके लिए ....
आज आपके लिए एक हज़ल ले कर हाज़िर हूँ , हलके मन और गहरे दिल के साथ ध्यान से पढ़िए
और मज़े लीजिए

मिलन की खुशबुओं को आज भी खोने नहीं देते
वही गंजी है सालों से मगर धोने नहीं देते

हमारे घर के मच्छर भी सनम से कितना मिलते हैं
जो दिन भर भुनभुनाते हैं तो शब१ सोने नहीं देते

हवाएं धूप पानी बीज लेकर साथ फिरते हैं
मगर वो खेत वाले ही फसल बोने नहीं देते

अब उनसे हमारा झगड़ा मिटे भी तो भला कैसे
अमन की बात करते हैं मिलन होने नहीं देते

अब अपने दर्द का इज़हार भी कैसे करूँ यारों
वो थप्पड़ मारते भी हैं मगर रोने नहीं देते

न जाने कब गरीबी मुझे साबित करनी पड़ जाए
इसी खातिर तो राशन कार्ड हम खोने नहीं देते

ये पैसा मैल है हाथों का और हम हैं सफाईमंद
तभी रब हाथ मैला हमारा होने नहीं देते

बड़ी मेहनत से करते हैं तरक्की मुल्क की अपने
हुई औलाद दर्जन, मगर 'बस' होने नहीं देते

खसम तो आज हो बैठे हैं कुत्तों से कहीं बद्तर
बंधा रखते हैं थोड़ी हवा भी खाने नहीं देते

मोहोब्बत पाक है अपनी रिन्यू करते हैं रोज़ाना
अकेले ही किसी को खर्च हम ढोने नहीं देते

अजब दस्तूर है इस जहां में इन हुस्न वालों का
किसी को थाल मिलते हैं हमें दोने नहीं देते

हमारी उम्र में अक्सर जवानी कसमसाती है
वो जाना चाहती है और हम जाने नहीं देते


नहीं कर पाए साबित जल के परवाने वफा अपनी
'तवज्जो' शमा कहती है कि परवाने नहीं देते

(शब=रात)
(इज़हार=अभिव्यक्ति)

लीगल सूचना: इस पोस्ट पर के सभी चरित्र काल्पनिक हैं , अगर किसी को इससे
अपनी समानता मिले तो लेखक इसके लिए उत्तरदाई नहीं होगा ........हा हा हा

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शुक्रवार, 19 मार्च 2010

हे यायावर !

एक भटकन..... जो जन्म के इस पार से मृत्यु के  उस पार तक भी हमारा पीछा नहीं छोडती है ...
मन प्राण आत्मा इस भटकाव के जाल से निकल नहीं पाती है ...उसे भान भी नहीं होता अपनी पराधीनता का
आशाएं हैं कि हमें भटकने के लिए मजबूर करती हैं  और हम अपनी निजता से दूर एक अनजान खोज में भटकते हैं यायावर बन कर  ...
कहीं तो थिर मिले-

हे यायावर....!

खोजता है कुछ

भटकता है,

कि है संधान कोई

समय के आवर्त में

या खोजता है अर्थ कोई

क्यों व्यथित है पथिक

सांसें और अंतः प्राण तेरे

रुलाते है तुझे क्या परिवेश

जीवन के कथानक

पांव के व्रण

या कि तम के

घन घनेरे...


कल्पना संसार

नातों के भंवर से

मृत्यु के उस पार

आशाएं सबल है

स्वप्न का शृंगार कर

छद्म का परिवेश धर

लक्ष्य पाने की त्वरा में

प्राण का पंछी विकल है


क्षिप्त अभिलाषा

तृषा का करुण क्रंदन

क्षितिज से आगे

क्षितिज-नव का निबंधन

भर रहे अस्तित्व में

संवेग प्रतिपल

यान से बिछड़े हुए खग

दंभ तज

आ लौट घर चल


क्या कभी पैठा नहीं

उतरा नहीं

अन्तः अतल में

या कि वर्तुल वेग में आविष्ट

झंझावात का

वर्जन किया है ?

ठहर जा दो पल..

बुझा कर दग्ध आँखें

विचारों को मौन कर ले

भ्रंश हों सब मान्यताएं

और पूर्वाग्रहों का

कण कण बिखर ले

नाद अनहद सुन

ह्रदय आनंद से संतृप्त

सरिता प्रेम की अविरल बहे 

मन प्राण को स्वच्छंद कर

निर्भय अमिय का पान कर ले 

और निजता में अवस्थित

आत्म साक्षात्कार कर

बस मौन हो जा

मौन हो जा  

हे यायावर ......

 

{आज मै ब्लॉग जगत के दरबार में अपनी वो रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसे किसी प्रतिष्ठित साईट ने छापने लायक नहीं समझा, कृपया अपनी अमूल्य टिप्पणी अवश्य दें ताकि मुझे और बेहतर करने कि शक्ति मिले और मेरा मार्ग प्रशस्त हो }

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मंगलवार, 16 मार्च 2010

पतझड़ के बहाने

कई दिनों से कुछ लिखने का मन नहीं होता .... मन में वैराग्य सा है ,....
कोई हलचल नहीं होती .... पतझड़ का मौसम है एक तरफ जहां पुराने पत्र अपनी
आयु पूरी कर अधोमुख धाराशाई हैं वही नए किसलय नूतन सृजन का सन्देश दे रहे
हैं ... सोचता हूँ क्या सन्देश देना चाहती है सृष्टि हमें इस मौसम के
बहाने ... नव सृजन का .. या पुरा पतन का ... या इन दोनों का .... समय की
नियति का ...ऐसे में गीता का श्लोक अनायास ही सामने खिंच आता है
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय।
नवानि गृह्णाति नरोsपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि।
अन्यानि संयाति नवानि देही।।

आज इसी परिदृश्य में अपनी एक पुरानी रचना पुनः प्रस्तुत करना चाहता हूँ -

विधना बड़ी सयानी रे
जीवन अकथ कहानी रे
तृषा भटकती पर्वत पर्वत
समुंद समाया पानी रे……..

दिन निकला दोपहर चढ़ी
फिर आई शाम सुहानी रे
चौखट पर बैठा मै देखूं
दुनिया आनी जानी रे……..

रूप नगर की गलियाँ छाने
यौवन की नादानी रे
अपना अंतस कभी न झांके
मरुथल ढूंढें पानी रे……..

जो डूबा वो पार हुआ
डूबा जो रहा किनारे पे
प्रीत प्यार की दुनिया की ये
कैसी अजब कहानी रे……..

मै सुख चाहूँ तुम से प्रीतम
तुम सुख मुझसे चाहोगे
दोनों रीते दोनों प्यासे
आशा बड़ी दीवानी रे…….

तुम बदले संबोधन बदले
बदले रूप जवानी रे
मन में लेकिन प्यास वही
नयनों में निर्झर पानी रे……….

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सोमवार, 8 मार्च 2010

कहते हैं विज्ञानी जग की यही कहानी (पदम सिंह)

कहते हैं विज्ञानी जग की यही कहानी
समय सदा बलवान रहा पर विजय सत्य ने जानी


ये सच है, सच रोता भी है बोझ दुखों का ढोता भी है
किन्तु दुखों को सहकर के उत्साह नहीं वो खोता भी है
ऐसे मिट कर कितनों ने तासीर सत्य की जानी

कहते हैं विज्ञानी जग की यही कहानी


श्वेत पत्र पर श्वेत कलम से जैसे कोई लिखता है
इसी तरह यदि दुःख ना हों आनंद कहाँ फिर दिखता है
बिना दुखों के सुख की कीमत बिलकुल है बेमानी

कहते हैं विज्ञानी जग की यही कहानी

दुनिया को बदलो खुद सा, या दुनिया सा बन जाओ

औरों का अनुसरण करो या जग को राह दिखाओ

किन्तु समय वश में करने को क्रान्ति पड़ी अपनानी

कहते हैं विज्ञानी जग की यही कहानी

 

मन बावरा फंसा रहता है सुख दुःख के घेरे में

केन्द्र बिंदु आनंद छोड़ कर भटक रहा फेरे में

दुनिया भर की ग्यानी दुनिया कैसी है दीवानी  

कहते हैं विज्ञानी जग की यही कहानी

 

कहीं नहीं पग चिन्ह छोड़ता खग उड़ता आकाश

ज्ञान तृषा तो बुझे तभी जब हो जा स्वयंप्रकाश

अंध अनुकरण करे किसी का, दुनिया की नादानी

कहते हैं विज्ञानी जग की यही कहानी

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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गुरुवार, 4 मार्च 2010

पागल पंछी नाचे क्यों

पागल पंछी नाचे क्यों
सोने का पिंजरा ओ पंछी
बना हुआ अस्तित्व तुम्हारा
कनक कटोरी के दानों में
रची बसी जीवन की धारा
पराधीन तन मन आतप है
भूला निज स्वातंत्र्य तुम्हारा
संघर्षों से लड़ मरने से
भली तुम्हें लगती है कारा
अगर नहीं तो छोड़ चहकना
मिट्ठू मिट्ठू गाते क्यों ....
पागल पंछी नाचे क्यों

फूलों की डाली के बदले
झूठे चित्र सजा रखे हैं
छोड़ तरंगित मुक्त पवन को
कृत्रिम वाद्य बजा रखे हैं
भूल गए है पंख तुम्हारे
उड़ना पर्वत घाटी में
ढले हुए हैं भाव तुम्हारे
दुनिया की परिपाटी में
अंतः प्रज्ञा तज कर पगले
मिथ्या पोथी बांचे क्यों
पागल पंछी नाचे क्यों

धीरे धीरे पिंजरे के सुख
ऐसे तुमपर छा जायेंगे
कारा के भयमुक्त सुपल
उन्मुक्त गगन को खा जायेंगे
ऐसे में फिर खुली हवा में
साँसें लेने से डरता है
छोड़ सुरक्षित दीवारों को
उड़ना मुक्त बुरा लगता है
पराधीन होकर भी खुश हो
ऐसे भरे कुलांचे क्यों ......
पागल पंछी नाचे क्यों

अगम अगोचर मन का पिंजरा
अन्तस् की दीवारों सा
ऐसे में कुछ टूट गया है
प्राणों के स्वरधारों सा
जो तुमको अपना लगता है
वो सब केवल सपना है
गहरे पैठ खोज ले प्राणी
जो कुछ तेरा अपना है
मुक्ता मणि छोड़ कर कंकड़
पत्थर भला संवाचे क्यों
पागल पंछी नाचे क्यों

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पागल पंछी नाचे क्यों (पदम सिंह)

पागल पंछी नाचे क्यों
सोने का पिंजरा ओ पंछी
बना हुआ अस्तित्व तुम्हारा
कनक कटोरी के दानों में
रची बसी जीवन की धारा
पराधीन तन मन आतप है
भूला निज स्वातंत्र्य तुम्हारा
संघर्षों से लड़ मरने से
भली तुम्हें लगती है कारा
अगर नहीं तो छोड़ चहकना
मिट्ठू मिट्ठू गाते क्यों ....
पागल पंछी नाचे क्यों

फूलों की डाली के बदले
झूठे चित्र सजा रखे हैं
छोड़ तरंगित मुक्त पवन को
कृत्रिम वाद्य बजा रखे हैं
भूल गए है पंख तुम्हारे
उड़ना पर्वत घाटी में
ढले हुए हैं भाव तुम्हारे
दुनिया की परिपाटी में
अंतः प्रज्ञा तज कर पगले
मिथ्या पोथी बांचे क्यों
पागल पंछी नाचे क्यों

धीरे धीरे पिंजरे के सुख
ऐसे तुमपर छा जायेंगे
कारा के भयमुक्त सुपल
उन्मुक्त गगन को खा जायेंगे
ऐसे में फिर खुली हवा में
साँसें लेने से डरता है
छोड़ सुरक्षित दीवारों को
उड़ना मुक्त बुरा लगता है
पराधीन होकर भी खुश हो
ऐसे भरे कुलांचे क्यों ......
पागल पंछी नाचे क्यों

अगम अगोचर मन का पिंजरा
अन्तस् की दीवारों सा
ऐसे में कुछ टूट गया है
प्राणों के स्वरधारों सा
जो तुमको अपना लगता है
वो सब केवल सपना है
गहरे पैठ खोज ले प्राणी
जो कुछ तेरा अपना है
मुक्ता मणि छोड़ कर कंकड़
पत्थर भला संवाचे क्यों
पागल पंछी नाचे क्यों

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