फिर से घनघोर घाटा छाई है अमराई मे
कहाँ हो आन मिलो शाम की तनहाई मे विरह की आग पे छींटे न दे अरे बादल
कहीं धुआँ न उठे फिर कहीं रुसवाई मे चाँद बेज़ार भटकता रहा सरे मंज़र
चाँदनी खोई बादलों की तमाशाई मे रूठने और मनाने को बहुत हैं मौसम
आज तो चूड़ियाँ मचलने दो कलाई मे पद्म खिलने लगे हैं झील मे कंवल ऐसे
जैसे केसर का रंग घुल गया मलाई मे -.... पद्म सिंह- 04-07-2012
कहाँ हो आन मिलो शाम की तनहाई मे विरह की आग पे छींटे न दे अरे बादल
कहीं धुआँ न उठे फिर कहीं रुसवाई मे चाँद बेज़ार भटकता रहा सरे मंज़र
चाँदनी खोई बादलों की तमाशाई मे रूठने और मनाने को बहुत हैं मौसम
आज तो चूड़ियाँ मचलने दो कलाई मे पद्म खिलने लगे हैं झील मे कंवल ऐसे
जैसे केसर का रंग घुल गया मलाई मे -.... पद्म सिंह- 04-07-2012
Posted via email from पद्म सिंह का चिट्ठा - Padm Singh's Blog
खूबसूरत ख्यालो की
जवाब देंहटाएंखूबसूरत सी ग़ज़ल...
कुँवर जी,
बहुत सुन्दर..
जवाब देंहटाएंहर शेर प्यारा...
(हमने पहले भी टिप्पणी की थी...स्पाम में गयी लगता है....)
अनु