तुम्हारे जाने से पहले तक
कुछ भी नहीं था
चकित करने जैसा
घिरा था धुंध सा
छलावा
मेरे अस्तित्व के गिर्द
जाले थे
मेरी नज़रों पर
पलकों के बिछोने पर
न था
खरोंच का भी अंदेशा
टूटना ही था शायद
सो टूटा
रिश्ता ही था
या एक अनगढ़
तृषा
मिटटी थी कच्ची
या सिर्फ उन्माद
सर्जक का...
कुछ तो टूटा
पर अन्दर से
कुछ नया निकला है
जैसे नए मौसम में
नई कोपलें
नयी राहें ...
नयी संभावनाएं
कच्ची मिटटी और...
अनंत आकाश...
Posted via email from हरफनमौला
ठहराव लिये अच्छी रचना
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