पिछले कुछ दिनों से अचानक एक मुद्दा तूफान की तरह उठा और पूरे भारत मे चर्चा का विषय बन गया... ऐसा नहीं कि यह पहले कोई मुद्दा नहीं था या कभी उठाया नहीं गया किन्तु जिस वृहद स्तर पर पूरे देश मे इसपर चर्चा हुई...
लोग एकजुट हुए वह अपने आप मे संभवतः पहली बार था... यह मुद्दा है भ्रष्टाचार का। जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो दो प्रश्न प्रमुखतासे खड़े होते हैं। पहला तो यह कि आखिर भ्रष्टाचार का श्रोत कहाँ है...भ्रष्टाचार के कारण क्या हैं... और दूसरा प्रमुख प्रश्न है कि इसकानिवारण कैसे हो। हम यहाँ कुछ भौतिक और मनोवैज्ञानिक कारकों पर विचार करतेहैं -
भ्रष्टाचार का श्रोत अथवा कारण—
1- नैतिकता पतन- जैसा कि इसके नाम से ही इसका पहला श्रोत स्पष्ट होता है,आचरण का भ्रष्ट हो जाना ही भ्रष्टाचार है। आचरण का प्रतिनिधित्व सदैवनैतिकता करती है। किसी का नैतिक उत्थान अथवा पतन उसके आचरण पर भी प्रभावडालता है। आधुनिक शिक्षा पद्धति और सामाजिक परिवेश मे बच्चों के नैतिकउत्थान के प्रति लापरवाही बच्चे को पूरे जीवन प्रभावित करती है। एकबच्चा दस रूपये लेकर बाज़ार जाता है। दस रूपये मे से अगर दो रूपये बचतेहैं तो चाहे घर वालों की लापरवाही अथवा छोटी बात समझ कर अनदेखा करने के
कारण, बच्चा उन दो रूपयों को छुपा लेता है और इसी स्तर पर भरष्टाचार कीपहली सीढ़ी शुरू होती है। अर्थात जब जीवन की पहली सीढ़ी पर ही उसे उचितमार्गदर्शन, नैतिकता का पाठ, और औचित्य अनौचित्य मे भेद करने ज्ञान उसकेपास नहीं होता तो उसका आचरण धीरे धीरे उसकी आदत मे बदलता जाता है। अतःभ्रष्टाचार का पहला श्रोत परिवार होता है जहां बालक नैतिक ज्ञान के अभावमे उचित और अनुचित के बीच भेद करने तथा नैतिकता के प्रति मानसिक रूप सेसबल होने मे असमर्थ हो जाता है।
2- शार्टकट की आदत – यह मानव स्वभाव होता है कि किसी भी कार्य को व्यक्तिकम से कम कष्ट उठाकर प्राप्त कर लेना चाहता है। वह हर कार्य के लिए एक छोटा और सुगम रास्ता खोजने का प्रयास करता है। इसके लिए दो रास्ते हो सकते हैं... एक रास्ता नैतिकता का हो सकता है जो लम्बा और कष्टप्रद भी हो सकता है और दूसरा रास्ता है छोटा किन्तु अनैतिक रास्ता। एक मोटर साइकिल चालक जिसके पास पर्याप्त प्रपत्र नहीं हैं। उसके लिए कई सौ रूपये जुर्माने अथवा निरुद्ध करने का प्रावधान है, किन्तु वह खोजता है आसान और छोटा रास्ता। वह कोशिश करता है कि उसे नियमानुसार अर्थदण्ड के अतिरिक्त किसी छोटे दण्ड से छुटकारा मिल जाय। इसके लिए वह यह जानते हुए कि वह भ्रष्टाचार स्वयं भी कर रहा है और ट्राफिक हवलदार को भी इसके लिए बढ़ावा दे रहा है, नियम तोड़ने से नहीं हिचकता और किसी प्रभावी व्यक्ति से दबाव डलवा कर, कोई बहाना बनाकर अथवा कुछ कम अर्थदण्ड का लालच देकर वह आसानी से छुटकारा पाने की कोशिश करता है।
3- आर्थिक असमानता - कई बार परिवेश और परिस्थितियाँ भी भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार होती हैं। हर मनुष्य की कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ होती हैं। जीवन यापन के लिए के लिए धन और सुविधाओं की कुछ न्यूनतम आवश्यकताएँ होती हैं। विगत कुछ दशकों मे पूरी दुनिया मे आर्थिक असमानता तेज़ी से बढ़ी है। अमीर लगातार और ज़्यादा अमीर हो रहे हैं जबकि गरीब को अपनी जीविका के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जब व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएँ सदाचार के रास्ते पूरी नहीं होतीं तो वह नैतिकता पर से अपना विश्वास खोने लगता है और कहीं न कहीं जीवित रहने के लिए अनैतिक होने के लिए बाध्य हो जाता है।
4- महत्वाकांक्षा- कोई तो कारण ऐसा है कि लोग कई कई सौ करोड़ के घोटाले करने और धन जमा करने के बावजूद भी और धन पाने को लालायित रहते हैं और उनकी क्षुधा पूर्ति नहीं हो पाती। तेज़ी से हो रहे विकास और बादल रहे सामाजिक परिदृश्य ने लोगों मे तमाम ऐसी नयी महत्वाकांक्षाएं पैदा कर दी हैं जिनकी पूर्ति के लिए वो अपने वर्तमान आर्थिक ढांचे मे रह कर कुछ कर सकने मे स्वयं को अक्षम पाते हैं। जितनी तेज़ी से दुनिया मे नयी नयी सुख सुविधा के साधन बढ़े हैं उसी तेज़ी से महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ी हैं जिन्हें नैतिक मार्ग से पाना लगभग असंभव हो जाता है। ऐसे मे भ्रष्टाचार के द्वारा लोग अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए प्रेरित होते हैं।
5- प्रभावी कानून की कमी- भ्रष्टाचार का एक प्रमुख कारण यह भी है कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए या तो प्रभावी कानून नहीं होते हैं अथवा उनके क्रियान्वयन के लिए जो सिस्टम का ठीक नहीं होता है। सिस्टम मे तमाम सी खामियाँ होती हैं जिनके सहारे अपराधी/भ्रष्टाचारी को दण्ड दिलाना बेहद मुश्किल हो जाता है।
6- कुछ परिस्थितियाँ ऐसी भी होती हैं जहाँ मनुष्य को दबाव वश भ्रष्टाचार करना और सहन करना पड़ता है। इस तरह का भ्रष्टाचार सरकारी विभागों मे बहुतायत से दिखता है। वह चाह कर भी नैतिकता के रास्ते पर बना नहीं रह पाता है क्योंकि उसके पास भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए अधिकार सीमित और प्रक्रिया जटिल हैं।
निवारण-
1- कठोर और प्रभावी व्यवस्था- दुनिया के किसी भी देश मे भ्रष्टाचार और अपराध से निपटने के लिए कठोर और प्रभावी कानून व्यवस्था का होना तो अति आवश्यक है ही... साथ ही इसके प्रभावी मशीनरी के द्वारा प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया जाना भी बेहद आवश्यक है। दुनिया भर मे कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिस और अन्य सरकारी मशीनरियाँ काम करती हैं। अब लगभग हर देश मे पुलिस, फायर सर्विस जैसी तमाम सरकारी सहाता के लिए एक यूनिक नंबर होता है जिसके मिलाते ही वह सुविधा आम लोगों को मिलती है। लेकिन यदि कोई रिश्वत मांगता है अथवा भ्रष्टाचार करता है तो ऐसा कोई सीधी व्यवस्था नहीं दिखती है कि एक फोन मिलाते ही भ्रष्टाचार निरोधी दस्ता आए और पीड़ित की सहायता करे और भ्रष्ट के खिलाफ कार्यवाही करे।
2- आत्म नियंत्रण और नैतिक उत्थान- यह एक हद तक ठीक है कि भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक कडा कानून होना आवश्यक है किन्तु इस से भ्रष्टाचार पर मात्र तात्कालिक और सीमित नियंत्रण ही प्राप्त किया जा सकता है भ्रष्टाचार समाप्त नहीं किया जा सकता है। सत्य के साथ जीना सहज नहीं होता, इसके लिए कठोर आंत्म नियंत्रण त्याग और आत्मबल की आवश्यकता होती है। जब तक हमें अपने जीवन के पहले सोपानों पर सत्य के लिए लड़ने की शक्ति और आत्म बल नहीं मिलेगा भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलना संभव नहीं है। दुनिया मे उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ावे के साथ नैतिक शिक्षा के प्रति उदासीनता बढ़ी है। पश्चिमी शिक्षा पद्धति ने स्कूलों और पाठ्यक्रमों से आत्मिक उत्थान से अधिक भौतिक उत्थान पर बल मिला है जिससे बच्चों मे
ईमानदारी और नैतिकता के लिए पर्याप्त प्रेरकशक्ति का अभाव देखने को मिलता है। बचपन से ही शिक्षा का मूल ध्येय धनार्जन होता है इस लिए बच्चों का पर्याप्त नैतिक उत्थान नहीं हो पाता है। अतः शिक्षा पद्धति कोई भी हो उसमे नैतिकमूल्य, आत्म नियंत्रण, राष्ट्र के प्रति कर्तव्य जैसे विषयों का समावेश होना अति आवश्यक है।
3- आर्थिक असमानता को दूर करना- आर्थिक असमानता का तेज़ी से बढ़ना बड़े स्तरपर कुंठा को जन्म देता है। समाज के आर्थिक रूप से निचले स्तर पर आजीविकाके लिए संघर्ष किसी व्यक्ति के लिए नैतिकता और ईमानदारी अपना मूल्य खोदेती है। पिछले दिनों योजना आयोग ने गावों के लिए 26 रूपये और शहरों के
लिए 32 रूपये प्रति व्यक्ति प्रति दिन खर्च को जीविका के लिए पर्याप्तमाना, और यह राशि खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं माना जाएगा, जबकि यहतथ्य किसी के भी गले नहीं उतारा कि इस धनराशि मे कोई व्यक्ति ईमानदारीके साथ अपना जीवनयापन कैसे कर सकता है। गरीबी और आर्थिक असमानता भी जब हद से बढ़ जाती है तो नैतिकता अपना मूल्य खो देती है यह हर देश काल के लिए एक कटु सत्य है कि एक स्तर से अधिक आर्थिक/सामाजिक असमानता ने क्रांतियों जन्म दिया है। इस कारण किसी भी देश की सरकार का प्रभावी प्रयास होनाचाहिए कि आर्थिक असमानता एक सीमा मे ही रहे।इसके अतिरिक्त और भी बहुत से प्रयास किए जा सकते हैं जो भ्रष्टाचार को कम करने अथवा मिटाने मे कारगर हो सकते हैं परंतु श्रेयस्कर यही है कि सख्त और प्रभावी कानून के नियंत्रण के साथ नैतिकता और ईमानदारी अंदर से पल्लवित हो न कि बाहर से थोपी जाय।
.... पद्म सिंह
Posted via email from पद्म सिंह का चिट्ठा - Padm Singh's Blog
लोग एकजुट हुए वह अपने आप मे संभवतः पहली बार था... यह मुद्दा है भ्रष्टाचार का। जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो दो प्रश्न प्रमुखतासे खड़े होते हैं। पहला तो यह कि आखिर भ्रष्टाचार का श्रोत कहाँ है...भ्रष्टाचार के कारण क्या हैं... और दूसरा प्रमुख प्रश्न है कि इसकानिवारण कैसे हो। हम यहाँ कुछ भौतिक और मनोवैज्ञानिक कारकों पर विचार करतेहैं -
भ्रष्टाचार का श्रोत अथवा कारण—
1- नैतिकता पतन- जैसा कि इसके नाम से ही इसका पहला श्रोत स्पष्ट होता है,आचरण का भ्रष्ट हो जाना ही भ्रष्टाचार है। आचरण का प्रतिनिधित्व सदैवनैतिकता करती है। किसी का नैतिक उत्थान अथवा पतन उसके आचरण पर भी प्रभावडालता है। आधुनिक शिक्षा पद्धति और सामाजिक परिवेश मे बच्चों के नैतिकउत्थान के प्रति लापरवाही बच्चे को पूरे जीवन प्रभावित करती है। एकबच्चा दस रूपये लेकर बाज़ार जाता है। दस रूपये मे से अगर दो रूपये बचतेहैं तो चाहे घर वालों की लापरवाही अथवा छोटी बात समझ कर अनदेखा करने के
कारण, बच्चा उन दो रूपयों को छुपा लेता है और इसी स्तर पर भरष्टाचार कीपहली सीढ़ी शुरू होती है। अर्थात जब जीवन की पहली सीढ़ी पर ही उसे उचितमार्गदर्शन, नैतिकता का पाठ, और औचित्य अनौचित्य मे भेद करने ज्ञान उसकेपास नहीं होता तो उसका आचरण धीरे धीरे उसकी आदत मे बदलता जाता है। अतःभ्रष्टाचार का पहला श्रोत परिवार होता है जहां बालक नैतिक ज्ञान के अभावमे उचित और अनुचित के बीच भेद करने तथा नैतिकता के प्रति मानसिक रूप सेसबल होने मे असमर्थ हो जाता है।
2- शार्टकट की आदत – यह मानव स्वभाव होता है कि किसी भी कार्य को व्यक्तिकम से कम कष्ट उठाकर प्राप्त कर लेना चाहता है। वह हर कार्य के लिए एक छोटा और सुगम रास्ता खोजने का प्रयास करता है। इसके लिए दो रास्ते हो सकते हैं... एक रास्ता नैतिकता का हो सकता है जो लम्बा और कष्टप्रद भी हो सकता है और दूसरा रास्ता है छोटा किन्तु अनैतिक रास्ता। एक मोटर साइकिल चालक जिसके पास पर्याप्त प्रपत्र नहीं हैं। उसके लिए कई सौ रूपये जुर्माने अथवा निरुद्ध करने का प्रावधान है, किन्तु वह खोजता है आसान और छोटा रास्ता। वह कोशिश करता है कि उसे नियमानुसार अर्थदण्ड के अतिरिक्त किसी छोटे दण्ड से छुटकारा मिल जाय। इसके लिए वह यह जानते हुए कि वह भ्रष्टाचार स्वयं भी कर रहा है और ट्राफिक हवलदार को भी इसके लिए बढ़ावा दे रहा है, नियम तोड़ने से नहीं हिचकता और किसी प्रभावी व्यक्ति से दबाव डलवा कर, कोई बहाना बनाकर अथवा कुछ कम अर्थदण्ड का लालच देकर वह आसानी से छुटकारा पाने की कोशिश करता है।
3- आर्थिक असमानता - कई बार परिवेश और परिस्थितियाँ भी भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार होती हैं। हर मनुष्य की कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ होती हैं। जीवन यापन के लिए के लिए धन और सुविधाओं की कुछ न्यूनतम आवश्यकताएँ होती हैं। विगत कुछ दशकों मे पूरी दुनिया मे आर्थिक असमानता तेज़ी से बढ़ी है। अमीर लगातार और ज़्यादा अमीर हो रहे हैं जबकि गरीब को अपनी जीविका के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जब व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएँ सदाचार के रास्ते पूरी नहीं होतीं तो वह नैतिकता पर से अपना विश्वास खोने लगता है और कहीं न कहीं जीवित रहने के लिए अनैतिक होने के लिए बाध्य हो जाता है।
4- महत्वाकांक्षा- कोई तो कारण ऐसा है कि लोग कई कई सौ करोड़ के घोटाले करने और धन जमा करने के बावजूद भी और धन पाने को लालायित रहते हैं और उनकी क्षुधा पूर्ति नहीं हो पाती। तेज़ी से हो रहे विकास और बादल रहे सामाजिक परिदृश्य ने लोगों मे तमाम ऐसी नयी महत्वाकांक्षाएं पैदा कर दी हैं जिनकी पूर्ति के लिए वो अपने वर्तमान आर्थिक ढांचे मे रह कर कुछ कर सकने मे स्वयं को अक्षम पाते हैं। जितनी तेज़ी से दुनिया मे नयी नयी सुख सुविधा के साधन बढ़े हैं उसी तेज़ी से महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ी हैं जिन्हें नैतिक मार्ग से पाना लगभग असंभव हो जाता है। ऐसे मे भ्रष्टाचार के द्वारा लोग अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए प्रेरित होते हैं।
5- प्रभावी कानून की कमी- भ्रष्टाचार का एक प्रमुख कारण यह भी है कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए या तो प्रभावी कानून नहीं होते हैं अथवा उनके क्रियान्वयन के लिए जो सिस्टम का ठीक नहीं होता है। सिस्टम मे तमाम सी खामियाँ होती हैं जिनके सहारे अपराधी/भ्रष्टाचारी को दण्ड दिलाना बेहद मुश्किल हो जाता है।
6- कुछ परिस्थितियाँ ऐसी भी होती हैं जहाँ मनुष्य को दबाव वश भ्रष्टाचार करना और सहन करना पड़ता है। इस तरह का भ्रष्टाचार सरकारी विभागों मे बहुतायत से दिखता है। वह चाह कर भी नैतिकता के रास्ते पर बना नहीं रह पाता है क्योंकि उसके पास भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए अधिकार सीमित और प्रक्रिया जटिल हैं।
निवारण-
1- कठोर और प्रभावी व्यवस्था- दुनिया के किसी भी देश मे भ्रष्टाचार और अपराध से निपटने के लिए कठोर और प्रभावी कानून व्यवस्था का होना तो अति आवश्यक है ही... साथ ही इसके प्रभावी मशीनरी के द्वारा प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया जाना भी बेहद आवश्यक है। दुनिया भर मे कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिस और अन्य सरकारी मशीनरियाँ काम करती हैं। अब लगभग हर देश मे पुलिस, फायर सर्विस जैसी तमाम सरकारी सहाता के लिए एक यूनिक नंबर होता है जिसके मिलाते ही वह सुविधा आम लोगों को मिलती है। लेकिन यदि कोई रिश्वत मांगता है अथवा भ्रष्टाचार करता है तो ऐसा कोई सीधी व्यवस्था नहीं दिखती है कि एक फोन मिलाते ही भ्रष्टाचार निरोधी दस्ता आए और पीड़ित की सहायता करे और भ्रष्ट के खिलाफ कार्यवाही करे।
2- आत्म नियंत्रण और नैतिक उत्थान- यह एक हद तक ठीक है कि भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक कडा कानून होना आवश्यक है किन्तु इस से भ्रष्टाचार पर मात्र तात्कालिक और सीमित नियंत्रण ही प्राप्त किया जा सकता है भ्रष्टाचार समाप्त नहीं किया जा सकता है। सत्य के साथ जीना सहज नहीं होता, इसके लिए कठोर आंत्म नियंत्रण त्याग और आत्मबल की आवश्यकता होती है। जब तक हमें अपने जीवन के पहले सोपानों पर सत्य के लिए लड़ने की शक्ति और आत्म बल नहीं मिलेगा भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलना संभव नहीं है। दुनिया मे उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ावे के साथ नैतिक शिक्षा के प्रति उदासीनता बढ़ी है। पश्चिमी शिक्षा पद्धति ने स्कूलों और पाठ्यक्रमों से आत्मिक उत्थान से अधिक भौतिक उत्थान पर बल मिला है जिससे बच्चों मे
ईमानदारी और नैतिकता के लिए पर्याप्त प्रेरकशक्ति का अभाव देखने को मिलता है। बचपन से ही शिक्षा का मूल ध्येय धनार्जन होता है इस लिए बच्चों का पर्याप्त नैतिक उत्थान नहीं हो पाता है। अतः शिक्षा पद्धति कोई भी हो उसमे नैतिकमूल्य, आत्म नियंत्रण, राष्ट्र के प्रति कर्तव्य जैसे विषयों का समावेश होना अति आवश्यक है।
3- आर्थिक असमानता को दूर करना- आर्थिक असमानता का तेज़ी से बढ़ना बड़े स्तरपर कुंठा को जन्म देता है। समाज के आर्थिक रूप से निचले स्तर पर आजीविकाके लिए संघर्ष किसी व्यक्ति के लिए नैतिकता और ईमानदारी अपना मूल्य खोदेती है। पिछले दिनों योजना आयोग ने गावों के लिए 26 रूपये और शहरों के
लिए 32 रूपये प्रति व्यक्ति प्रति दिन खर्च को जीविका के लिए पर्याप्तमाना, और यह राशि खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं माना जाएगा, जबकि यहतथ्य किसी के भी गले नहीं उतारा कि इस धनराशि मे कोई व्यक्ति ईमानदारीके साथ अपना जीवनयापन कैसे कर सकता है। गरीबी और आर्थिक असमानता भी जब हद से बढ़ जाती है तो नैतिकता अपना मूल्य खो देती है यह हर देश काल के लिए एक कटु सत्य है कि एक स्तर से अधिक आर्थिक/सामाजिक असमानता ने क्रांतियों जन्म दिया है। इस कारण किसी भी देश की सरकार का प्रभावी प्रयास होनाचाहिए कि आर्थिक असमानता एक सीमा मे ही रहे।इसके अतिरिक्त और भी बहुत से प्रयास किए जा सकते हैं जो भ्रष्टाचार को कम करने अथवा मिटाने मे कारगर हो सकते हैं परंतु श्रेयस्कर यही है कि सख्त और प्रभावी कानून के नियंत्रण के साथ नैतिकता और ईमानदारी अंदर से पल्लवित हो न कि बाहर से थोपी जाय।
.... पद्म सिंह
Posted via email from पद्म सिंह का चिट्ठा - Padm Singh's Blog
बेहतरीन प्रस्तुति। बहुत विस्तार से समझाया है आपने।
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