बुधवार, 25 अगस्त 2010

भटकती आत्मा से साक्षात्कार (संस्मरण)


[Edit]
mix जाने क्यों और कैसे … बचपन में मुझे ऊंचाइयों से गिरने और अजीब अजीब सायों  के बहुत से सपने आया करते … शायद इन्हीं के प्रभाव से धीरे धीरे ऊंचाई से एक डर की  भावना अंदर कहीं घर कर गयी थी .. अगर किसी छत से भी नीचे देखता तो ऐसा लगता कि जैसे अचानक ही नीचे गिर जाऊँगा… या फिर अक्सर सपनों में किसी अँधेरे गहरे कुंए में मुक्त गिरने जैसे सपने देखता …अक्सर घबरा कर उठ बैठता और फिर सो नहीं पाता था … मै जितना भी इन सपनों से बचना चाहता ऐसे  सपने और भी सजीव हो कर   मेरे पीछे पड़ जाते…ऐसे सपनों की वजह से जान कितनी सांसत में होती थी उस समय, ये आज सोच कर हँसी भी आती है…
कुछ बड़ा होने पर मैंने जाने किस अन्तःप्रज्ञा अथवा सहज बुद्धि के कारण डर से जीतने का मन बना लिया…. मुझे अच्छी तरह याद है कि जब भी मुझे कुंए या ऊंचाई से गिरने जैसे सपने आते… मैंने उसे ध्यान से देखना और स्वीकार करना प्रारम्भ किया… अर्द्धचेतन अवस्था में मैंने अपने आपको कई बार गहरे कुँए में गिर जाने दिया और डरते हुए भी साहस कर के गिरते हुए देखता रहा… किसी साए के दिखने पर भी मैंने उसके प्रति हिम्मत से काम लेते हुए देखता रहता… लेकिन इसकी तैयारियां जागने के दौरान ही करता…कई बार तो प्रतीक्षा भी करता इस तरह के सपने आने की .. अपनी छत की तीन इंच चौड़ी मुंडेर पर कांपते पैरों से लेकिन सप्रयास  चलने  की कोशिश करता… जानबूझ कर छत से नीचे देखता रहता… या मन ही मन ऐसी परिस्थितियों से लड़ने की कोशिश करता … धीरे धीरे मुझमे  हिम्मत आती गयी और  इस तरह के सभी सपने आने पूरी तरह से बंद हो गए… अब तो  मुझे यदा कदा ही सपने आते हैं.. आज  किसी भी अँधेरे, भूत या ऊंचाई आदि के डर से एकदम मुक्त हूँ…. किसी भी अँधेरी सुनसान या भुतहा जगह पर आधी रात चले जाना मेरे लिए मामूली बात है… कई बार तो शर्त लगा कई किलोमीटर दूर  भयानक पुरानी खंडहर  मंदिरों में रात बारह एक बजे बेहिचक हो कर आया हूँ… पर अब मुझे इन सब से डर नहीं लगता कभी … यद्यपि सतर्कता और सावधानी के प्रति लापरवाह भी नहीं हूँ …. इस तरह के सपनों का कारण कहीं न कहीं असुरक्षा की भावना से सम्बंधित होती है … बच्चों के कोमल मन मे कब कैसी चीज़ें घर कर जाती हैं, माता पिता या परिवार जान भी नहीं पाता.. और न बच्चा उसे अभिव्यक्त कर पाता है … और अकेले घुटता है…  बचपन की ये भावनाएं और अनुभव पूरे जीवन उसके साथ चलते हैं और कहीं न कहीं उसके व्यवहार और सोच को प्रभावित करते हैं…
index इसी क्रम में मुझे छह सात वर्ष पुरानी एक सत्य घटना याद आती है… जब मेरा साक्षात्कार एक भटकती आत्मा से हुआ… मुझे गाज़ियाबाद आये हुए कुछ ही वर्ष हुए थे … बिजली पानी  की चौबीस घंटे सुविधा को देखते हुए मैंने किराए पर न रह कर विभागीय आवास में ही रहना ठीक समझा… मेरा उक्त  आवास अन्य आवासों से हट कर है दोनों ओर घास के लान और किचेन गार्डन के लिए जगह होने के कारण अलग थलग सा लगता है… उस दिन पहली बार मै अपना कम्प्युटर(डेल का पेंटियम-3) खरीद कर लाया था… नए कम्प्युटर के प्रति उत्सुकतावश मै बाहर वाले कमरे में खिड़की के पास कम्प्युटर ले कर बैठा था… घर में सब सो गए थे … कम्प्युटर पर आँखें गड़ाए हुए मुझे रात काफी देर हो गयी थी…  बाहर की लाईट खराब होने के कारण धुप अँधेरा पसरा हुआ था … मै खिड़की के एकदम पास बैठा था … अचानक मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मेरी खिड़की पास से दबे पाँव गुज़रा हो…. पहले तो मैंने नज़रंदाज़ कर दिया कि मेरा वहम हो सकता है …. आधे मिनट में ही खिड़की की मच्छर जाली से बाहर किसी की साँसों की आवाज़ सुनाई दी ….. और फिर से कोई दबे पाँव खिड़की को पार कर गया … अंदर लाईट जल रही थी … इस लिए बाहर के अँधेरे में कुछ भी नहीं दिख रहा था …. मैंने कम्प्युटर से नज़र हटाये बिना उस आहट के प्रति सजग हो गया था….आहट इतनी स्पष्ट थी कि एक बार तो मेरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गयी … मैंने उसी समय उस आहट से निपटने का मन बना लिया …. धीरे से उठा और अंदर की लाईट बंद कर ली … जिससे मेरी किसी हरकत का पता बाहर वाले को न लगे …. अंदर अँधेरा होने पर मै उठा और दरवाजे तक दबे पाँव गया… चटकनी हौले से खोला और अचानक दरवाजा खोल कर बाहर आ गया … बाहर धुप अँधेरा फैला था … ऊपर से कम्प्युटर स्क्रीन पर घंटों आँखें गड़ाए होने के कारण  आँखों के आगे चमकीला धब्बा सा बन गया था,…. मै कुछ भी नहीं देख पा रहा था … चूंकि आहट आवास के बगल वाली तरफ की खिड़की के पास थी इस लिए मै अँधेरे में अपनी आँखे फाड़े बगल के कनेर के पेड़ के झुरमुट हटाते हुए गौर से देखने का प्रयास किया…. आप यकीन मानिए जो मंज़र था उसे देख कर कोई भी कमज़ोर दिल का इंसान गश खा कर गिर सकता था … मुझे हल्का हल्का दिखने लगा था … मैंने देखा कि बड़े बड़े खुले बाल कन्धों पर बिखराये … कुर्ते पायजामे में एक साया दीवार से सटा…. दीवार के मोड़ के कोने में चुपचाप दोनों हाथ ऊपर उठाये खड़ा था … इतना देखते ही एक बार तो जैसे बिजली सी कौंध गयी पूरे शरीर में … सेकेण्ड के पौने हिस्से में एक एक रोम सिहर गया … पर अगले ही पल मैंने अपने आपको सम्हाला और उसके थोड़ा और नज़दीक गया … और डाट कर पूछा … “कौन है वहाँ?” ………साया अब भी बिना  हिले डुले चुपचाप  बुत की तरह खड़ा था… मै एक दो कदम और आगे बढाए और फिर चीख पर पूछा “कौन है उधर?”….. अब मेरी और उसकी दूरी पांच फिट की रही होगी…. अचानक साया उछला और मेरे एकदम पास आ कूदा और मेरी आँखों में घूरते हुए स्त्री आवाज़ में बोला… “मै भटकती आत्मा हूँ” … अब आप अंदाज़ा लगाइए कि ऐसी स्थिति में एक इंसान की क्या हालत हो सकती है…. मै भी उसी फुर्ती से एक कदम पीछे हटते हुए अपने आप को हर परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार कर चुका था … मैंने फिर पूछा “यहाँ क्यों आई हो” … आत्मा मुझे पहले की तरह घूरती रही … फिर रहस्यमय आवाज़ में बोली …. मेरे गुरु का आदेश था … मै इधर से गुजर रही थी … पेड़ की पत्तियां छूते ही मुझे पता चल गया कि कमरे में कुछ हो रहा है …. उसके इतना बोलने तक मै अपने आपको सम्हाल चुका था …. और फिर आगे बढ़ा और आत्मा की कलाई पर अपने पंजे जकड़ दिए …. लगभग घसीटते हुए उसे झाडियों में से आवास के सामने ले आया जहाँ इतनी रौशनी थी कि गौर से कुछ देखा जा सके … देखा तो पाया कि इस भटकती आत्मा की  उम्र लगभग पच्चीस से तीस साल की रही होगी …. सफ़ेद कुरता पायजामा, गंदे और बिखरे हुए बाल के साथ साथ खड़ी और अच्छी हिंदी में वार्तालाप करती हुई आत्मा के बारे में तय हो चुका था कि ये फिलहाल इंसानी शरीर ही है … उसके बाद मै जो कुछ पूछता उसका ऊल जलूल उत्तर देती … मुझे जाने क्यों झुंझलाहट में क्रोध आया और मैंने झन्नाटेदार एक तमाचा उसके गाल पर रसीद कर दिया (जिन्होंने खाया है वो कहते हैं मेरा एक तमाचा कई मिनट के लिए सुन्न कर देने के लिए काफी होता है) … तमाचा खा कर काफी देर तो उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया… और फिर जब बोली तो कुछ इस दुनिया जैसे अंदाज़ में …. मैंने अब भी उसकी कलाई जोर से पकड़ रखी थी …. कुछ सोच कर उसे रौशनी में देखने के लिए उसे  लगभग दो सौ फिट दूर गैया वाली आंटी के घर के सामने तक ले गया… आंटी बाहर ही सो रही थीं … मेरे बुलाने पर बाहर की लाईट जलाई तो वो भी अचंभित हो गयीं कि रात दो बजे मेरे साथ ये कौन थी … फिर पूछताछ का दौर चला …. आत्मा जी अच्छी खासी हिंदी बोल रही थी … बीच बीच में अंग्रेजी के शब्द… कम्प्युटर वगैरह की भी जानकारी थी उसे  …  नाम भी कुछ अच्छा सा बताया था उसने… इंदौर की रहने वाली थी …. उसने बात चीत के दौरान कई बार आंटी से पूछा कि बताओ इसने मुझे मारा क्यों ?  मैंने इसे छेड़ा था?, या इसे आँख मारी थी, मै तो कम्प्युटर देख रही थी…देखो मेरी पेशाब निकल गयी है …
scary अब स्पष्ट हो चुका था कि उस लड़की का मानसिक संतुलन ठीक नहीं था … यह जान लेने पर मुझे भी अपने ऊपर ग्लानि होने लगी …. उसे समझाने बुझाने का प्रयास भी किया लेकिन वो तो अपनी धुन में थी … मैंने सोचा उसे पुलिस के हवाले कर दूँ …हो सकता है किसी की बेटी हो अपने घर पहुच जाय … लेकिन उसने बताया पुलिस वाले ही तो उसे लाये हैं यहाँ … मेरे लाख कहने के बावजूद आंटी ने मुझे उसे छोड़ने नहीं जाने दिया और खुद ही हाथ पकड़ कर उसे कालोनी के मेन गेट के बाहर छोड़ आईं …
मै घर लौट आया …. पत्नी बच्चे घटना से अनभिज्ञ सो रहे थे … मुझे भी सोचते हुए कब नींद आ गयी पता नहीं… सुबह देर से उठा तो कालोनी और उस से बाहर तक चर्चा फ़ैल गयी थी …. रात मोहल्ले मे चुड़ैल घूम रही थी… किसी ने कहा मेरा दरवाजा खटखटाया… किसी ने कहा मेरे घर प्याज रोटी मांग रही थी … जितने मुँह उतनी तरह की बातें …. पर मुझे अब भी ग्लानि होती है कि किसी की बेटी इस तरह से बेसहारा घूम रही थी… मै प्रयास करता तो शायद उसके घर तक पहुंचा सकता था  ….

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ कहिये न ..