यह रचना सर्दियों में लिखी गयी थी…पद्मावलि पर प्रकाशन भी किया गया था… लेकिन इस समय इसकी प्रासंगिकता कहीं बेहतर लग रही है इसी लिए ढिबरी पर इसका पुनः प्रकाशन कर रहा हूँ….
पूरे दिन का सवेरे मज़मून गढ़ जाती है धूप
एक सफहा जिंदगी का रोज़ पढ़ जाती है धूप
मुंहलगी इतनी कि पल भर साथ रह कर देखिये
पाँव छू, उंगली पकड़ फिर सर पे चढ जाती है धूप
लांघती परती तपाती खेत, घर ,जंगल, शहर
इस तरह से रास्ते पे अपने बढ़ जाती है धूप
अब्र हो गुस्ताख, शब हो, या शज़र चाहे ग्रहन
सब के इल्जामात मेरे सर पे मढ जाती है धूप
देख सन्नाटा समंदर पे हुकूमत कर चले
शहर से गुजरी कि बित्ते में सिकुड़ जाती है धूप
पूस में दुल्हन सी शर्माती लजाती है मगर
जेठ में छेड़ो तो इत्ते में बिगड़ जाती है धूप
धूप 16/01/2010 पद्म सिंह ----9716973262
बहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएंआपको राम नवमीं की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ.
bahut sateek vishleshan hai doop ka ...bahut sundar .badhai .
जवाब देंहटाएंबहुत खूब..
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार! विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
जवाब देंहटाएंसुंदर लेखन के लिये आपको साधुवाद
जवाब देंहटाएंढिबरी के खुले झरोखे
जवाब देंहटाएंदेखे
धूप के रूप अनोखे ।
..वाह!
सुन्दर...
जवाब देंहटाएं'मुंहलगी इतनी कि पल भर साथ रह कर देखिये
जवाब देंहटाएंपाँव छू, उंगली पकड़ फिर सर पे चढ जाती है धूप.'
...वाह! क्या अंदाज़ है.....धूप को रदीफ़ बनाकर ज़दीद शायरों ने कई ग़ज़लें कही हैं. आपकी ग़ज़ल उनसे किसी मायने में कम नहीं है. अच्छे और दमदार अशआर हैं आपकी ग़ज़ल में..बधाई!
---देवेंद्र गौतम
बहुत खूब ..धूप पर सुन्दर मुसलसल गज़ल|
जवाब देंहटाएंमुंहलगी इतनी कि पल भर साथ रह कर देखिये
जवाब देंहटाएंपाँव छू, उंगली पकड़ फिर सर पे चढ जाती है धूप
बड़ी प्यारी पंक्तियाँ!